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________________ समाधिमरण हैं। वे इससे मुक्त होना चाहते हैं। अत: ज्ञानी व्यक्ति अपने पौद्गलिक शरीर के त्याग का अवसर उपस्थित होने पर आनेवाली मृत्यु का महोत्सव मनाते हैं। वे अपने रुग्ण, असक्त क्षणभंगुर, जीर्ण-शीर्ण शरीर को उसी प्रकार प्रसन्नतापूर्वक छोड़ते हैं जिस प्रकार नया वस्त्र ग्रहण करने के लिए पुराने वस्त्र का त्याग किया जाता है।' समाधिमरण करनेवाला व्यक्ति सांसारिक विषयों के प्रति ममत्व का भाव नहीं रखता है। वह अपने माता-पिता, पुत्र-पुत्री, स्वजन-मित्र आदि के प्रति राग का भाव नहीं रखता है। वह परिजनों तथा अपने विरोधियों के प्रति किसी तरह का राग-द्वेष नहीं रखता है । वह स्वजन, परिजन सभी से अपने द्वारा किये गए अपराधों के लिए क्षमा मांगता है एवं उनके द्वारा उसे जो कष्ट हुआ है उसके लिए उन्हें क्षमा करता है। तात्पर्य है कि समाधिमरण करनेवाला व्यक्ति राग-द्वेष से मुक्त रहता है। तत्त्वार्थवार्तिक में कहा गया है कि मरण उत्तर पर्याय की प्राप्ति के साथ पूर्व पर्याय का नाश है। मृत्यु के समय कषायों एवं विषय-वासनाओं की न्यूनाधिकता के अनुसार आत्म-परिणामों पर अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ता है। अत: मरण को सुधारने या अच्छा बनाने के लिए जीवन के अन्तिम क्षण में समाधिमरण लिया जाता है। समाधिमरण के द्वारा अनन्त संसार की कारणभूत कषायों का आवेग उपशमित या क्षीण हो जाता है, जिसके कारण जन्म-मरण का प्रवाह समाप्त हो जाता है। जन्म-मरण के प्रवाह के समाप्त होने का अर्थ यहाँ निर्वाण या मुक्ति से लिया गया है, क्योंकि निर्वाण या मुक्ति का अर्थ ही होता है बुझ जाना या मुक्त हो जाना। बुझने का अर्थ जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना है। मृत्यु अवश्यंभावी है। इससे बचा नहीं जा सकता है। अत: तप, संयम, समाधि आदि से जीवन को लाभान्वित करना चाहिए। तप, संयम, आदि व्रतों का पालन करते हुए शान्तिपूर्वक जो मृत्यु प्राप्त होती है, वह समाधिमरण ही है। महर्षि मृगापुत्र ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप आदि शुद्ध भावनाओं के द्वारा श्रामण्य धर्म का पालन करते हुए इस अनुत्तर सिद्धि को प्राप्त किया था। . जीवनभर व्यक्ति अपने देह की रक्षा करता रहता है। नाना प्रकार के कष्टों से इसे बचाता है। कितनों की प्रताड़ना को सहन करते हुए भी इसे भरपूर सुख देने का प्रयत्न करता है। लेकिन यह देह कृतघ्न की तरह एक दिन साथ छोड़ देती है। अज्ञानी व्यक्ति इस कृतघ्न देह के पीछे पागल रहता है। वह हर समय इसी उधेड़-बुन में रहता है कि कैसे इसे बचाया जाए। लेकिन मृत्युरूपी शिकंजा इसे अन्तत: कस ही लेता है। अज्ञानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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