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समाधिमग्ण और अन्य धार्मिक परम्पराएँ अपनी देहासनि के कारण इस विचार से अत्यन्त दुःखित रहता है तथा अज्ञान के बन्धन में पड़ा रहता है। लेकिन जो व्यक्ति ज्ञानसहित देह पर से अपने ममत्व का त्याग करता है नथा धर्मध्यानसहित वीतरागतापूर्वक अपना देहत्याग करता है उसका यह देहत्याग ही ममाधिमग्ण कहलाता है।
समाधिमरण करनेवाला व्यक्ति मृत्यु से घबराता नहीं है। मृत्यु का समय जब निकट होता है तो वह प्रसन्नता से विभोर होकर यह कह उठता है “अहिंसा, सत्य, क्षमा, मंतोष की धर्म-साधना के मार्ग पर मैं एक साधक के रूप में चला हूँ और मानव जीवन के इस स्वर्णिम अवसर का मैंने पूरा-पूरा लाभ उठाया है। आत्म-साधना के नाम पर बहुत कुछ कर लिया है, अब शष कार्य आगे करूँगा। जीवन का तो हमने पूरा-पूरा लाभ उठाया है, जीवन के अन्तिम क्षणों में भी झुकेंगे नहीं। हे मृत्यु ! हम तुम्हें ही झुकाएगें। वह कह उठता है- यह देह तो नाशवान है, इसे नष्ट होना ही है। अत: ऐ मृत्य! तेरा स्वागत है, तृ मेरे नश्वर शरीर को अपने साथ ले जा और मेरी अमर आत्मा को इससे मुक्त कर।" १३ यहाँ व्यक्ति का यह मनोभाव उसकी ज्ञान-भावना तथा मृत्यु और जीवन के प्रति तटस्थता के भाव का प्रदर्शन कर रही है। तटस्थता की यह भावना ही समाधिमरण है।
___ डा० मोहनलाल मेहता के अनुसार जीवन के अन्तिम क्षणों में आहारादि का त्याग करके समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करना समाधिमरण कहलाता है। वे पुनः कहते हैं कि जब व्यक्ति का शरीर इतना निर्बल हो जाए कि वह संयम की साधना अर्थात् आचार नियमों का सम्यक् रूपेण परिपालन करने में असमर्थ हो जाए तो ऐसी स्थिति में शरीर का त्याग ही करना उचित है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति का शरीर जब किसी भी कार्य को करने में असमर्थ हो जाए तो ऐसी अवस्था में बिना किसी राग-द्वेष के शान्त एवं प्रसन्नचित्त भाव से आहारादि एवं देह के पोषण के प्रयत्नों को त्याग कर आत्म-चिन्तन करते हुए आनेवाली मृत्यु का वरण कर लेना चाहिए। मृत्यु का इस तरह वरण करना ही समाधिमरण है। वृद्धावस्था या रुग्णता के अतिरिक्त भी जब आकस्मिक रूप में मृत्यु अपरिहार्य बन गई हो तो निर्विकार चित्तवृत्ति से देह का त्याग करना भी समाधिमरण कहलाता है।
__ डॉ० दरबारीलाल कोठिया समाधिमरण के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - सल्लेखना या समाधिमरण का अर्थ है सम्यक् प्रकार से काय (शरीर) और कषाय को कृश करना।१५ काय और कषाय को कृश करने का तात्पर्य मृत्यु के समय की जानेवाली उस क्रिया विशेष से है, जिस क्रिया विशेष में बाहरी और भीतरी अर्थात् शरीर तथा रागादि दोषों के अनेक कारणों को कम करते हुए प्रसन्नतापूर्वक बिना किसी दबाव
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