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________________ समाधिमरण और अन्य धार्मिक परम्पराएँ मानी जा सकती हैं । मन-वचन-काय के प्रयोग के सन्दर्भ में यहाँ यह विवेचन उपस्थित किया जा सकता है कि तीनों ही योगों से आहार, उपाधि और देह के त्याग का भाव होना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति वचन और काय से देहत्याग की बात करता है और मन से नहीं करता है, तो उसका यह देहत्याग समाधिमरण न होकर एक प्रकार से आत्महत्या ही होगी, जबकि समाधिमरण आत्महत्या नहीं है। उपासकाध्ययन के अनुसार व्यक्ति को जब यह विदित हो जाए कि उसका शरीर नष्ट होनेवाला है तो उसे समभावपूर्वक शरीर का त्याग करना चाहिए । पुन: इसी में कहा गया है कि अगर देह ठहरने योग्य हो तो उसे नष्ट नहीं करना चाहिए और यदि वह नष्ट हो रहा हो तो किसी तरह का प्रमाद भी नहीं करना चाहिए । ५ ५ प्रायः व्यक्ति देहासक्ति के कारण अपने ग्लान शरीर को भरपूर शक्ति से बचाने का प्रयत्न करता है, लेकिन जब उसके प्रयत्न निष्फल होने लगते हैं तो वह दुःख और शोक के गहरे सागर में डूब जाता है। दुःख और शोक की यह छाया उसके बचे हुए जीवन को भी विषादमय बना देती है। फलत: वह जीवन और मृत्यु दोनों ही अवस्थाओं में क्लेश को प्राप्त करता है। यह क्लेश ही उसके समस्त दुःखों का कारण माना जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थ (उपासकाध्ययन) में ग्रंथकार व्यक्ति को इस विषादमय क्लेश से मुक्त होकर नाशवान शरीर के विनष्ट होने पर किसी तरह का दुःख नहीं करने का संदेश दे रहे हैं। सामान्य रूप से व्यक्ति राग-द्वेष से ग्रसित रहता है । वह देह के प्रति मोहभाव रखता है। फलत: वह नानाप्रकार के दुःखों को सहता है, क्योंकि देह के प्रति रागभाव और देह के विनाश के कारणों के प्रति द्वेषभाव होने से वह समभाव को प्राप्त नहीं कर पाता है। वह अपने प्रियजनों की मृत्यु अथवा स्वयं की मृत्यु की सम्भावना से सदैव भयभीत रहता है। लेकिन जो ज्ञानी हैं, वे ऐसा नहीं समझते हैं। वे अपनी मृत्यु से नहीं डरते हैं। उनके अनुसार तो मृत्यु जीर्ण-शीर्ण शरीररूपी पिंजरे से आत्मा को छुटकारा दिलाती है, अत: यह तो कल्याणकारी मित्र है । ऐसी निराकांक्ष समभाव मृत्यु को मृत्यु महोत्सव (समाधिमरण) कहा गया है। सामान्य व्यक्ति संसार और विषय कषाय के पोषक जड़ और चेतन पदार्थों को आत्मीय समझते हैं। इसी कारण उन्हें इनको छोड़ने में दुःख होता है । लेकिन जो ज्ञानी हैं और जिन्हें देह और आत्मा के भेद का ज्ञान है वे विषय और कषाय की पोषक बाह्य वस्तुओं को तथा अपने शरीर को भी आत्मीय नहीं मानते हैं । अत: उन्हें इनको छोड़ने का दुःख नहीं होता है। वे इस संसार को अपना वास्तविक निवास स्थान नहीं समझते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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