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समाधिमरण
अथवा इसी तरह की कोई प्राणघातक अनिवार्य परिस्थिति उपस्थित हो जाने पर धर्म की रक्षा अथवा समभाव की साधना के लिए जो देहत्याग किया जाता है, वह समाधिमरण कहलाता है।" उन्होंने समाधिमरण को धर्मरक्षार्थ जीवन की अंतिम बेला में ग्रहण की जाने वाली सम्यक् क्रिया माना है।
उत्तराध्ययन में समाधिमरण को पण्डितमरण अथवा सकाममरण भी कहा गया है। पण्डितमरण ज्ञानीजनों का मरण है। ज्ञानी पुरुष मृत्यु उपस्थित होने पर अनासक्त भाव से उसे ग्रहण करते हैं। अनासक्त भाव का अर्थ है- देहत्याग की स्थिति में भी अविकल रहना। जो व्यक्ति मृत्य से भागता है, उससे डरता है वह सच्चे अर्थ में अनासक्त जीवन जीने की कला से अनभिज्ञ रहता है। जिसे अनासक्त मृत्यु की कला नहीं आती वह अनासक्त जीवन की कला भी नहीं समझ सकता है। अनासक्त भाव से मृत्युवरण करने की कला को समाधिमरण कहा जाता है।
जीवन की अन्तिम बेला में अथवा किसी आसन्न संकटापन्न अवस्था में इधर-उधर के विक्षेप, माया-ममता, वैभव-विलास, ललक-लालसा से पृथक् होकर अपनी स्वीकृत साधना, आत्म-मन्थन के प्रति एक रूप होकर तथा सभी पाप, ताप, सन्ताप, समग्र आसक्ति-प्रीति से विमुक्त होकर अनशनपूर्वक देह पर से ममत्व का त्याग करने का नाम ही समाधिमरण है। साधना की इस अतमुखी स्थिति में साधक परिवार, घर, जड़, चेतन आदि सभी पदार्थों से आसक्ति का त्याग करता है। अपनी समग्र शक्ति अर्थात् आत्मा, मन, प्राण आदि को इस समत्व-साधना के साथ एकनिष्ठ तथा एकरस कर देता है। साधक को लौकिक और पारलौकिक दोनों ही संसार का आकर्षण नहीं रहता है। सभी ओर से सिमट कर वह विशुद्ध आत्म-परिणति में विचरण करता है। इस प्रकार समाधिमरण विशुद्ध चारित्र से युक्त आत्मभाव में आत्मा के रमण करने का नाम है।
महाप्रत्याख्यान में समाधिमरण पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि समाधिमरण करनेवाले की आत्मा बोल उठती है....... "आहार, उपाधि, देह आदि सबका मैं मनवचन-काय से त्याग करता हूँ। ।
आहार, उपाधि आदि को व्यक्ति देहरक्षण के लिए ही धारण करता है, क्योंकि शरीर को बनाए रखने के लिए आहार आवश्यक है। सर्दी-गर्मी आदि से शरीर को बचाने के लिए वस्त्र, उपकरण आदि का प्रयोग उपाधि कहलाता है। लेकिन यहाँ तो जिस देह के रक्षण के लिए आहार, उपाधि को ग्रहण किया जाता है उसी को त्याग करने की बात कही जा रही है। अत: समाधिमरण की भावना एक बहुत ही उदात्त भावना की परिचायक
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