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________________ समाधिमरण और अन्य धार्मिक परम्पराएँ के लिए यह कठोर तप कर रहे हैं। इस तप-प्रक्रिया का विस्तार से विवेचन 'तपोमार्ग' नामक अध्ययन में किया गया है। इसमें बारह प्रकार के तपों का विवेचन मिलता है जिनमें छह आन्तरिक एवं छह बाह्य तप हैं। बाह्य तपों में अनशन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें अनशन के यावत्कथित एवं मरणकाल दो रूपों का वर्णन है। अनशन को समाधिमरण की प्रक्रिया का एक आवश्यक अंग माना गया है। इससे ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए कि समाधिमरण बाह्य तप है या बाह्य तप का एक अंग है, क्योंकि समाधिमरण की प्रक्रिया में अनशन के द्वारा जहाँ देह के कृशीकरण की प्रक्रिया अपनायी जाती है, वहीं ध्यान आदि साधना के द्वारा चतुर्विध कषायों को क्षीण करने की प्रक्रिया भी अपनायी जाती है। समाधिमरण की प्रक्रिया न केवल शरीर व्युत्सर्ग की प्रक्रिया है, अपितु कषाय व्युत्सर्ग की भी प्रक्रिया है। इसमें आत्मशोधन या चित्तशोधन भी प्रमुख है। जैन परम्परा में समाधिमरण की साधना को मुख्य रूप में देह के प्रति ममत्वत्याग या देहासक्ति से ऊपर उठने के साथ ही साथ आत्मशोधन या आत्मानुभूति की प्राप्ति माना गया है। यह मरणकाल में उपस्थित होनेवाली बाधाओं से साधक को दूर रखती है जिससे कि उसके हृदय में व्याकुलता का भाव नहीं पनपता है। यह चेतना के अन्तर्मुखीकरण की प्रक्रिया है जो व्यक्ति में समत्व का भाव जगाती है, जिससे वह जीवन और मृत्यु दोनों ही परिस्थितियों में 'सम' बना रहता है। वह मृत्यु को भी जीवन की तरह ही एक आवश्यक प्रक्रिया समझता है। यही कारण है कि समाधिमरण को मृत्युकला के रूप में जाना जाता है। __ जैन परम्परा के सामान्य आचार-नियमों में समाधिमरण एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा है, जिसे संलेखना, संथारा आदि नामों से भी जाना जाता है। जैनधर्म में श्रमण साधकों एवं गृहस्थ उपासकों दोनों के लिए समाधिमरण ग्रहण करने के निर्देश मिलते हैं। जैन आगमों में समाधिमरण ग्रहण करने के अनेकों सन्दर्भ हैं। अन्तकृद्दशांग एवं अनुत्तरोपपातिक में ऐसे श्रमण साधकों और उपासकदशांग में ऐसे गृहस्थों की जीवन गाथाएँ मिलती हैं, जिन्होंने जीवन के अन्तिम समय में समाधिमरण ग्रहण किया था। आचारांग, समवायांग, स्थानांग, पंचाशकादि प्राचीन जैन ग्रंथों में समाधिमरण अथवा संलेखना के स्वरूप पर विचार-विमर्श हुआ है, लेकिन रत्नकरंडक श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने समाधिमरण के स्वरूप का सुस्पष्ट शब्दों में जो विवेचन किया है, वह अन्यत्र नहीं है। उनके अनुसार- “उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा (बुढ़ापा), असाध्य रोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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