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समाधिमरण
भारतीय मनीषियों ने जितना जीवन के विषय में चिंतन किया है, उतना ही मृत्यू के विषय में भी सोचा है। जीवनकला के साथ-साथ उन्होंने मृत्युकला पर भी गहरा मनन किया है और इस रहस्य को प्राप्त कर लिया है कि मृत्यु के समय हम किस प्रकार हँसते हुए शान्ति और कृतकृत्यता का अनुभव करते हुए प्राणों को छोड़ सकते हैं। देहत्याग के समय हमें कोई मानसिक उद्वेग या चिन्ता न हो। जिस प्रकार हम अपने पुराने-फटे वस्त्रों को उतार कर नवीन वस्त्र धारण करते हैं, उसी प्रकार की अनुभूति देहत्याग के समय होनी चाहिए। जिस प्रकार पथ पर चलता हुआ पथिक लक्ष्य पर पहुँचकर विश्रान्ति का अनुभव करता है, उसी प्रकार की शान्ति और विश्रान्ति का अनुभव हमें देहत्याग के समय होना चाहिए। हमारी दृष्टि में शरीर-त्याग वस्त्र-परिवर्तन या यात्रा की समाप्ति से अधिक कुछ नहीं है, इस प्रकार की जीवन-दृष्टि होनी चाहिए। जीवन का यह दृष्टिकोण मृत्यु की कला है और इस कला को सीखाने का सबसे अधिक प्रयत्न जैन मनीषियों ने किया है, जिसे समाधिमरण, संलेखना, संथारा आदि नामों से जाना जाता है।
जैनधर्म मुख्य रूप से निवृत्तिप्रधान धर्म है। निवृत्तिप्रधान धर्म होने के कारण इसमें सांसारिक जीवन और भौतिक सुखों की उपलब्धि की उपेक्षा की गई है तथा मानव जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष या निर्वाण माना गया है। जैनधर्म के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति के लिए नवीन कर्मबन्ध को रोकना होता है। साथ ही साथ पूर्व संचित कर्मों का भी क्षय करना होता है। इन्हें क्रमश: संवर और निर्जरा के द्वारा पूर्ण किया जाता है।
संयम और तप जैन साधना के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। संयम के द्वारा नवीन कर्मबन्ध की प्रक्रिया का निषेध अर्थात् आस्रव का निरोध किया जाता है। निर्जरा के द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय होता है। जैन साधना के लिए एक चतुर्विध मार्ग का प्रतिपादन किया गया है जिसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप का निरूपण हुआ है। कहा गया है कि ज्ञान के द्वारा हेय और उपादेय को जानना चाहिए, दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करनी चाहिए, चारित्र के द्वारा नवीन कर्मों का निग्रह करना चाहिए (चारित्र का तात्पर्य यहाँ संयम है)
और तप के द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय करके आत्मा का शोधन करना चाहिए। इससे व्यक्ति तप और संयम के द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय करके सर्व दु:खों का अन्त कर देता है अर्थात् निर्वाण या मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
निर्ग्रन्थ परम्परा की कठोर तप-साधना प्रसिद्ध है। एक बार भगवान् बुद्ध ने कुछ निर्ग्रन्थों को कठोर तप करते देखा तो उन्होंने उनसे पूछा कि तुम यह कठोर तप क्यों कर रहे हो? उन्होंने (निर्ग्रन्थों) प्रत्युत्तर दिया कि हम पूर्व कर्मों या पापों का क्षय करने
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