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________________ प्रथम अध्याय समाधिमरण और अन्य धार्मिक परम्पराएँ समाधिमरण का स्वरूप जीवन क्या है? इसे कैसे आनन्दमय बनाया जाए ताकि मनुष्य सुखों के साधनों का सम्यक् उपभोग कर सके। इसकी शिक्षा देनेवाले अनगिनत शास्त्र आज हमारे समक्ष हैं, विभिन्न प्रकार की तकनीक तथा कई प्रकार की प्रविधियों का अविष्कार भी हो रहा है। फिर भी मनुष्य सर्वदा से इस ऊहापोह में रहा है कि वह कैसे सुखपूर्वक जीवन बिताए? इस सन्दर्भ में वह सभी तरह के उद्यम करता रहता है, किन्तु वह जीवन के उस अन्तिम चरण से अनभिज्ञ रहता है जिसका नाम है - मृत्यु । मानव ने आनन्दपूर्वक जीने की कला तो सीखी है, लेकिन आनन्दपूर्वक मरण को स्वीकार करने की कला से वह अनभिज्ञ ही रहा है या रहना चाहता है। बहुत कम लोगों ने ही इस विषय पर चिन्तन किया है कि जीवन को सुखपूर्वक जीने के बाद प्राणों को सुखपूर्वक कैसे छोड़ा जाय? जिस प्रकार बचपन, यौवन, बुढ़ापा सुखपूर्वक बीता है, वैसे ही मृत्यु भी सुखपूर्वक एवं आनन्दपूर्वक आनी चाहिए। इस विषय पर सोचना बहुत आवश्यक है, जीवन कला तभी सार्थक होगी जब मृत्यु कला भी सीख ली जाए। मनुष्य जीवन भर आनन्द करता है, खान-पान में, भोग-विलास में राग-रंग और हँसी-खुशी में समय बिताता है । चिन्ता, शोक आपत्ति क्या होती है? इसका नाम भी नहीं जानता अर्थात् हर दृष्टि से सुख का अनुभव करता है, किन्तु आखिरी समय जब मृत्यु आ खड़ी होती है, मौत का तांडव जखों के समक्ष उपस्थित हो जाता है, तब हाथपांव कापने लगते हैं। अशांत, पीड़ा से व्यथित होकर तड़पता हुआ, विलखता हुआ सबको छोड़कर चले जाना, मन में धन-वैभव, मित्र-परिवार सबके लिए पीड़ा का भाव लिए इस संसार से प्रयाण कर जाना जीवन की कला नहीं कही जा सकती, क्योंकि मृत्यु का भय सम्पूर्ण जीवन के आनन्द को, चैन को ऐसे नष्ट कर देता है जैसे ओला-वृष्टि का तेज प्रहार संजोकर रखी गयी फसलों को चौपट कर देता है। मरणकाल की व्यथा जीवन के सभी आनन्द को मिट्टी में मिला देती है। इसीलिए जीवनकला के साथ-साथ मृत्युकला भी सीखनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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