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समाधिमरण आशंसा-प्रयोग, (२) परलोक-आशंसा-प्रयोग, (३) जीवित-आशंसा-प्रयोग, (४) मरण-आशंसा-प्रयोग तथा (५) कामभोग-आशंसा-प्रयोग।
(१) इहलोक-आशंसा-प्रयोग-ऐहिक भोगों या भौतिक सुखों की कामना करना जैसे- मैं मरकर राजा, समृद्धिशाली, शक्तिशाली तथा सुखसम्पन्न बनें।
(२) परलोक-आशंसा-प्रयोग- स्वर्ग, परलोक आदि में प्राप्त होनेवाले सुखों की कामना करना। जैसे- मृत्यु के उपरान्त स्वर्ग मिलने की कामना करना और स्वर्ग में मिलनेवाले सभी सुखों के उपभोग की कामना करना।
(३) जीवित-आशंसा-प्रयोग - यश, कीर्ति, सेवा, सुश्रुषा के लिए उपलब्ध सहयोगी के लोभ तथा इसी तरह के अन्य कारणों के वशीभूत होकर अधिक समय तक जीने की लालसा रखना।
(४) मरण-आशंसा-प्रयोग- कठिनव्रत से होनेवाले कष्टों से घबराकर, अनशन के कारण उत्पन्न भूख, प्यास तथा अन्य किसी तरह की शारीरिक प्रतिकूलताओं को कष्ट समझकर शीघ्र मरण की कामना करना।
(५) काम-भोग-आशंसा-प्रयोग- ऐहिक तथा पारलौकिक शब्द, रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्शमूलक इन्द्रिय सुखों को भोगने की कामना करना।
तत्त्वार्थसूत्र में समाधिमरण के पाँच अतिचारों का उल्लेख मिलता है१७१(i) जीविताशंसा, (ii) मरणाशंसा, (iii) मित्रानुराग, (iv) सुखानुबन्ध और (v) निदानकरण।
(i) जीविताशंसा- आदर, सत्कार, पूजा-पाठ इत्यादि को देखकर अधिक जीने की कामना करना।
(i) मरणाशंसा- तप के दौरान सेवा, सत्कार करनेवाले को अपने पास नहीं आते देखकर, उद्वेग के कारण मृत्यु की कामना करना।
(iii) मित्रानुराग- मित्रों, मित्रतल्य व्यक्तियों और पुत्रों पर स्नेह का बन्धन दृढ़ होने से उनसे बिछुड़ने की कल्पना से कष्ट का अनुभव करना।
(iv) सुखानुबन्ध- अनुभूत सुखों का स्मरण करके उनके पुन: उपभोग की इच्छा करना।
(v) निदानकरण- तप व त्याग के फलस्वरूप किसी तरह की सांसारिक सुख
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