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________________ १५९ समाधिमरण का व्यवहार पक्ष अल्प करने में सक्षम होता है। ये सभी भावनायें व्यक्ति के मन में शुभ विचारों की ज्योति जलाकर उसे साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ाने में सहायक होती हैं। व्यक्ति मुख्य रूप से कषायों के वश में रहकर राग-द्वेष से मुक्त नहीं हो पाता है। लेकिन इन भावनाओं के चिन्तन से वह कषायों को पैदा करनेवाले मूल कारण को ही समाप्त कर देता है। वह अपने ममत्व का नाश इस भावना से करता है कि मेरा इस संसार में कोई नहीं है, यह संसार नाशवान है, मैं अकेला ही अपने कर्मों का कर्ता-भोक्ता हूँ। धन, दौलत, बल, शौर्य आदि सभी कर्मवशात् प्राप्त होते हैं, आज ये मेरे पास हैं कल किसी और के पास होंगे, यदि कोई इसके साथ दुर्व्यवहार करे तो मुझे इस पर किसी तरह का क्रोध नहीं करना चाहिए और न ही अपने धन-दौलत का घमण्ड या अभिमान करना चाहिए। समाधिमरण प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को मुख्य रूप से कषायों को अल्प करना होता है तथा मन को राग-द्वेष से पूरी तरह मुक्त रखना होता है, तीव्र कषाय को अल्प करने के लिए कषायरूपी चोरों (मान, माया, क्रोध और लोभ) का नाश करना होता है। राग-द्वेष से मुक्त होने के लिए अपने शरीर, बन्धु-बान्धवों पर से अपने ममत्व का त्याग करना होता है। व्यक्ति को अपना मन शुभध्यान में लगाना होता है। साधक को मुख्य रूप से निम्न प्रकार की साधना करनी होती है १. अपने देह, अपने कुटुम्बीजनों पर से अपने ममत्व का त्याग करना । २. चतुर्विध कषायों को अल्प करना । अनुप्रेक्षायें इन दोनों में सहायक होती हैं। अत: समाधिमरण की साधना की दृष्टि से इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। समाधिमरण के अतिचार समाधिमरण करने के लिए कठिन तप एवं साधना करनी पड़ती है। कभी-कभी साधना दीर्घ समय तक करनी होती है। इस काल में व्यक्ति के मन में तरह-तरह के विचार उठ सकते हैं। उसके मन में कभी अच्छे विचार तो कभी बुरे विचार उठते हैं। लेकिन समाधिमरण करनेवालों को मन में उठनेवाले विचारों पर नियन्त्रण रखना चाहिए, क्योंकि मन में उठनेवाले मनोभावों के कारण समाधिमरण खण्डित भी हो सकता है। जिन मनोभावों के कारण समाधिमरण खण्डित होता है, उन्हें अतिचार कहा जाता है। जैन ग्रन्थों में इन अतिचारों का उल्लेख मिलता है। अतिचारों की संख्या पांच है। - उवासगदसाओ के अनुसार अतिचारों की संख्या पांच है१७० (१) इहलोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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