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समाधिमरण का व्यवहार पक्ष
१५७ संसार में एकमात्र शरण धर्म ही है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई रक्षक नहीं है। जरा और मृत्यु के प्रवाह में डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्मद्वीप ही उत्तमस्थान और शरण रूप है।१६३ मरणविभक्ति में स्पष्टतया कहा गया है कि धर्म के स्वरूप और उसके गुणों का विचार करने से व्यक्ति अपने दोषों से मुक्त होता है। जैसे- जैसे वह दोषों से रहित होता जाता है, वैसे-वैसे वह परमपद (मोक्ष) के निकट होता जाता है क्योंकि दोषों से रहित होने पर उसका मन विषय-वासनाओं से मुक्त होता है।१६४
आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार दुर्गति में गिरते हुए जीवों को जो धारण करता है, बचाता है, वह धर्म है। सबों के द्वारा कथित संयम आदि के भेद से दस प्रकार के धर्म ही मोक्ष प्राप्त कराते हैं। धर्म उनका बन्धु है जिनका संसार में कोई बन्धु नहीं है, धर्म उनका सखा है जिनका कोई सखा नहीं है। धर्म उनका नाथ है जिनका कोई नाथ नहीं है। अखिल जगत के लिए एकमात्र धर्म ही रक्षक है। १६५ भगवती आराधना के अनुसार धर्म में श्रद्धा करने पर, धर्म को सुनने पर, धर्म को जानने पर, धर्म को स्मरण करने पर फल की प्राप्ति होती है तथा धर्म का पालन करने पर मन को शान्ति मिलती है। धर्म से मनुष्य पूज्य होता है सबका विश्वासपात्र होता है, सबका प्रिय होता है और यशस्वी होता है।१६६
इसकी सहायता से व्यक्ति अपने क्लेशों तथा दूषित मनोवृत्तियों से मुक्त होने का प्रयत्न करता है। व्यक्ति के कषाय अल्प होते हैं, क्योंकि कषायों की तीव्रता इन्हीं के कारण बढ़ती है। क्लेशों तथा दूषित मनोवृत्तियों को शुद्ध करने के कारण ही यह भावना समाधिमरण में सहायक होती है। बोधिदुर्लभ-भावना
बोधिदर्लभ-भावना के द्वारा यह चिन्तन किया जाता है कि जो बोध प्राप्त हुआ है उसका सम्यक् आचारण करना अत्यन्त दुष्कर है। इस दर्लभबोध को पाकर भी सम्यक आचरण के द्वारा आत्मविकास अथवा निर्वाण को प्राप्त नहीं किया तो पुन: ऐसा बोध होना अत्यन्त कठिन है। जैनशास्त्रों में कहा गया है कि चार वस्तुओं की उपलब्धि अत्यन्त दुर्लभ है- “संसार में प्राणी को मनुष्यत्व की प्राप्ति, धर्मश्रवण, शुद्ध-श्रद्धा और संयम मार्ग में पुरुषार्थ की। अत्यन्त कठिनाई से मानव शरीर की उपलब्धि होती है। जैन परम्परा के अनुसार निर्वाण की प्राप्ति केवल मानव पर्याय में ही सम्भव है। सद्भाग्य से मानव जीवन प्राप्त हो भी जाए तो सत्य धर्म का श्रवण होना अत्यन्त कठिन है। सत्य धर्म का श्रवण करने का अवसर मिल भी जाए, लेकिन ऐसी अनेक आत्मायें हैं जिन्हें धर्म श्रवण के पश्चात् भी उस पर श्रद्धा नहीं होती है। श्रद्धा हो जाने पर भी उसके अनुकूल आचरण करना अत्यन्त कठिन है। इस प्रकार सत्य धर्म की उपलब्धि और उस पर आचरण करना
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