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________________ १५६ समाधिमरण जाते हैं उस स्थान विशेष को अर्थात् इन छह द्रव्यों के समुच्चय को लोक कहते हैं। लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ ये छह द्रव्य न हों। षड्द्रव्यों में से आकाश द्रव्य सर्वत्र व्याप्त है और अन्य द्रव्य स्थान विशेष में व्याप्त है। आकाश के जितने भाग में छह द्रव्य स्थित हैं, उतने आकाश-खण्ड को लोक कहते हैं। जिस आकाश-खण्ड में षड्द्रव्य न हो, सिर्फ आकाश ही हो, वह अलोक है। यह लोक किसी का बनाया हुआ नहीं है बल्कि अनादिकाल से चला आ रहा है। यह लोक तीन भुवनोंवाला, अन्त में सब तरफ से अतिशय बेगवाले और अतिशय बलिष्ठ तीन बातवलयों से वेष्ठित है तथा ताड़ के वृक्ष के आकार जैसा है अर्थात् नीचे से चौड़ा बीच में सरल (पतला) तथा अन्त में विस्ताररूप लोक के अधो, मध्य और उर्ध्व तीन भाग हैं। नारकों का निवासस्थान अधोलोक है। यह नरकभूमि के नाम से जाना जाता है। इसकी संख्या सात मानी गई है।६० मध्यलोक की आकृति झालर के समान है। इस लोक में असंख्यात् द्वीपसमुद्र है। जम्बूद्वीप, धात की खंड, कर्मभूमियाँ आदि इसी लोक में अवस्थित होती हैं।१६१ मध्यलोक के ऊपर ऊर्ध्वलोक है जो आकार में पखावज (मृदङ्गविशेष) के समान है। सिद्धों, देवों का स्थान इसी लोक को माना गया है। इस प्रकार यह लोक स्वर्ग-नरक और मनुष्यलोक में बँटा हआ है। इसी लोक में नाना प्रकार के प्राणी नाना गतियों में अपने-अपने कर्मों के अनुसार जन्म लेते और मरते रहते हैं।१६२ अत: लोक की यह संरचना अनादिकालीन स्वनिर्मित है। कर्मवशात् जीव नरक योनि में जन्म लेकर दुःख भोगता है। कर्मभूमि में जन्म लेकर तीर्थंकरों की तरह सिद्धपद को प्राप्त कर सकता है तथा देवलोक में जन्म लेकर अनन्य सुख का उपभोग कर सकता है। . लोक-भावना का यह चिन्तन हमें यह संदेश देता है कि अन्य द्रव्यों की भाँति हमारी आत्मा भी इस लोक का एक द्रव्य है। हमें उसका यथार्थ स्वरूप जानकर अन्य पदार्थों से ममता छोड़ आत्मभावना का अभ्यास करना चाहिए। यह आत्मभावना की साधना निर्ममत्व होने में सहायता करती है। फलत: साधक समाधिमरण के पथ पर निरंतर प्रगति करता जाता है। ११. धर्म-भावना धर्म के स्वरूप और उसके आत्मविकास की शक्ति का विचार करना धर्म-भावना है। धर्म के वास्तविक स्वरूप का विचार करना आवश्यक है। एक जैनाचार्य ने धर्म के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है कि जिसमें राग और द्वेष न हो, स्वार्थ और ममत्व का अभाव हो वही सत्य एवं कल्याणकारी धर्म है। इस प्रकार धर्म के वास्तवकि स्वरूप का विचार करना और उसका पालन करना ही धर्म-भावना है। उत्तराध्ययन के अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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