________________
समाधिमरण का व्यवहार पक्ष
१५५ वचन, काय से इन्द्रियों का निरोध एवं कषायों का नाश करना होता है। १५१ आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं कि जो-जो आस्रव जिस-जिस उपाय से रोका जा सके, उसे रोकने के लिए विवेकवान व्यक्ति उस उपाय को काम में लाए।१५२ संवर की प्राप्ति के लिए उद्योग करनेवाले व्यक्ति को चाहिए कि वह क्षमा से क्रोध का, नम्रता से मान का, सरलता से माया का और निस्पृहता से लोभ का निवारण करे।५३ अखण्ड संयम, साधना के द्वारा इन्द्रियों की स्वच्छन्द प्रवृत्ति से बलवान बनानेवाले विष के समान विषयों का तथा विषयों की कामना का निरोध करे। तीन गुप्तियों द्वारा तीन योगों को, अप्रमाद से प्रमाद को और सावध योग के त्याग से अव्रतों को दूर करे। सम्यग्दर्शन के द्वारा मिथ्यात्व को तथा शुभ भावना में चित्त को स्थिर करके आर्त, रौद्रध्यान को परास्त करे।१५४ किस आस्रव का किस उपाय से निरोध किया जा सकता है व्यक्ति को उसका चिन्तन बार-बार अपने मन में करना चाहिए और यही चिन्तन संवर-भावना है।
कषायों के उत्पन्न करनेवाले विकारों का पूर्णतया निरोध करने का निर्देश देने के कारण ही यह भावना समाधिमरण में सहायक होती है। ९. निर्जरा भावना
आस्रव को संवर की सहायता से रोककर आगमों में कहे गए विभिन्न प्रकार के तपों की सहायता से पूर्व संचित कर्मों का क्षय करना ही निर्जरा है। निर्जरा के बारे में चिन्तन करना निर्जरा-भावना है। आस्रव संवर मात्र से ही कर्मों का क्षय नहीं हो जाता है। पर्व के कर्मों के क्षय के लिए तप की आवश्यकता होती है। कहा भी गया है सुरक्षित रखा हुआ धन तब तक खर्च नहीं होता है, जब तक कि उसका उपयोग नहीं किया जाए। मरणविभक्ति के अनुसार पुरातन कर्मों का क्षय तप की सहायता से ही होता है।५५५५ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में निर्जरा के लिए बारह प्रकार के तपों के विधान का वर्णन मिलता है।२५६ भगवती आराधना में भी स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि पूर्व के कर्मों का क्रम से क्षय करना ही निर्जरा है।१५७
__ संवर के द्वारा नवीन कर्मों के आगमन को रोका जाता है तथा निर्जरा के द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय किया जाता है। इस प्रकार कर्मों का पूर्ण क्षय होता है। कर्मों के पूर्ण क्षय हो जाने से व्यक्ति कषायमुक्त हो जाता है। व्यक्ति को कषायमुक्त करने में सहायक होने के कारण यह भावना समाधिमरण में सहायक होती है। १०. लोक-भावना .. लोक की रचना, आकृति, स्वरूप आदि पर विचार करना लोक-भावना है। लोक 'का अर्थ होता है।५८ धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव। ये द्रव्य जहाँ पाए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org