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________________ समाधिमरण शरीर, धन, वैभव आदि की अशुचिता का बोध कराकर तथा इन पर से ममत्व का त्याग करने का सन्देश देने के कारण ही यह भावना समाधिमरण में सहायक होती है, क्योंकि ये सभी तथ्य व्यक्ति के राग-द्वेष के कारण बनते हैं। इन पर से जब रागद्वेष हट जाता है तो व्यक्ति कषायमुक्त हो जाता है । सांसारिक वस्तुओं एवं भौतिक पदार्थों की अशुचिता को जानकर व्यक्ति इनकी तरफ से अपने मन को हटाता है और मोक्षप्राप्ति को अपना लक्ष्य समझता है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए वह और अधिक एकाग्र चित्त होकर अपनी साधना में रत हो जाता है। ७. आस्रव- भावना बन्धन के कारणों पर विचार करना आस्रव-भावना है। मरणविभत्ति के अनुसार ईर्ष्या, द्वेष, विषाद, क्रोध, मान, लोभ, आदि आस्रव के द्वार हैं। इन आस्रव - द्वारों के माध्यम से कर्मों का आगमन होता हैं। कर्मों का यह आगमन जीवों के गुणों के विनाश का कारण बनता है। जिस प्रकार समुद्र या नदी में छिद्रयुक्त नौका जल भर जाने के कारण नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार जीव भी कर्म - पुद्गलों के भर जाने के कारण विनाश को प्राप्त होता है । १४७ योगशास्त्र में कहा गया है कि कर्मबन्ध का मूल कारण आस्रव है। आस्रव कायिक, वाचिक, मानसिक प्रवृत्ति, राग-द्वेष के भाव कषाय, विषय - भोग, प्रमाद, अविरति, मिथ्यात्व और आर्त, रौद्रध्यान हैं। १४८ भगवती आराधना के अनुसार अरिहंत भगवान् द्वारा कहे गये अनन्त द्रव्य पर्यायात्मक पदार्थों में अश्रद्धान् के कारणों का अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय तथा मोहनीय कर्मों के अधीन रहकर मिथ्यात्व की उत्पत्ति में सहायक होनेवाले कारणों का विचार करना ही आस्रव भावना है । १४९ इस संसार के समस्त प्राणी सुख अथवा दुःख का अनुभव करते हैं। ऐसा शुभयोग अथवा अशुभयोग आस्रव के कारण होता है। शुभयोग आस्रव जहाँ पुण्यरूप है वही अशुभयोग आस्रव पापरूप है१५° 1 योग का अर्थ यहाँ उन प्रवृत्तियों से है जो मन में शुभ अथवा अशुभ विचार उत्पन्न करते हैं। १५४ ईर्ष्या, विषाद, क्रोध, मान, लोभ आदि मन को विकारयुक्त करनेवाले कारक होते हैं, पर चिन्तन करने तथा इन्हें दुःखरूप मानने के कारण व्यक्ति इनसे बचना चाहता है । इनसे बचने के लिए वह अपने मन को कषायमुक्त करता है और इस तरह से यह भावना समाधिमरण में सहायक होती है। ८. संवर- भावना जिन-जिन कारणों से आस्रव की उत्पत्ति होती है उन उन कारणों का निरोध करना ही संवर है । संवर का बार-बार चिन्तन करना संवर-भावना है। मरणविभक्ति में स्पष्टरूप से कहा गया है कि जीव को कर्म - आस्रवों का निरोध करना चाहिए। इसके लिए उसे मन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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