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________________ समाधिमरण का व्यवहार पक्ष बढ़ता है और मुक्ति को प्राप्त करता है । अशुचि - भावना अशुचि का अर्थ अपवित्र होता है। शरीर के मोह को नष्ट करने के लिए जैन. विचारकों ने अशुचि-भावना का विधान किया है। अशुचि - भावना में साधक मुख्य रूप से यह विचार करता है कि जिस देह, रूप, यौवन आदि का हमें अभिमान है, जिस पर हम ममत्व रखते हैं वह अशुचि का भण्डार है। आचार्य शुभचन्द्र शरीर की अशुचिता पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि "यह शरीर कृमियों से भरा हुआ, दुर्गन्धित, वीभत्स रूपवाला, मल-मूत्र से पूरित, गलन एवं ग्लानि स्वभाववाला, रुधिर, मांस-मज्जा, अस्थि आदि अनेक अपवित्र वस्तुओं से बना हुआ है। अस्थियों पर लिप्त मांस एवं त्वचा से आच्छादित यह शरीर सदा से अपावन है । १३९ उत्तराध्ययन में भी शरीर की अशुचिता एवं अशाश्वतता पर प्रकाश डाला गया है । १४० मरणविभत्ति के अनुसार जीवों का शरीर अपवित्र वस्तुओं से मिलकर बना है अतः इसके प्रति ममत्व का भाव रखना व्यर्थ है । इस ग्रन्थ में कहा गया है कि मांस और अस्थियों से संयुक्त, मूत्र और विष्ठा से परिपूरित तथा नौ छिद्रों से निन्तर अपवित्र पदार्थों का परिश्रावक (बहने) होनेवाले शरीर में क्या सुख है ? १४१ १५३ भगवती आराधना के अनुसार अर्थ, काम और मनुष्यों का शरीर अशुभ है। सभी सुखों का भण्डार धर्म ही शुभ है, शेष सब अशुभ है। १४२ अर्थ से तात्पर्य धन से है। धन सभी प्रकार के बुरे परिणामों का कारण है। धन व्यक्ति को इहलोक और परलोक दोनों ही स्थानों में दोषों से युक्त कर देता है। कहने का अर्थ यह है कि प्रायः व्यक्ति धन प्राप्त कर बुरे कर्मों में लिप्त हो जाता है । इस कारण वह इस लोक में तो कष्ट पाता ही है, परलोक में भी उसे कष्ट उठाने पड़ते हैं। बुरे कर्मों के संचय करने के कारण व्यक्ति बन्धन में पड़ा रहता है और विभिन्न प्रकार के दुःखों और योनियों को प्राप्त करता है । मृत्यु आदि भय का कारण धन ही है। इसीलिए धन को महाभय कहा गया है। १४३ मोक्ष प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक धन ही है। धन के घमण्ड (गर्व) के कारण ही व्यक्ति मोक्ष के प्रति चिन्तन भी नहीं करना चाहता है । १४४ Jain Education International कामभोग अपवित्र होता है। यह स्व तथा पर के शरीर के संयोग से उत्पन्न होता है। यह अल्प काल के लिए ही उत्पन्न होता है, लेकिन व्यक्ति को दोनों ही लोकों में दु:ख प्रदान करता है । १४५ जीवों का यह शरीर अस्थियों से बना और चर्मों के आवरण से ढ़का है। कई तरह की विकृतियों एवं दुर्गन्धों से युक्त यह सभी रोगरूपी सर्पों का घर है । अत: यह शरीर अशुचित है और इसके प्रति ममत्व रखना व्यर्थ है । १४६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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