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________________ १५२ समाधिमरण भिन्न हैं तथा हम (आत्मा) उन पदार्थों से भिन्न हैं। १३३ अज्ञानवश व्यक्ति दूसरों के सुखदुःख को अपना समझकर उनसे सुखी और दुःखी होता रहता है। दूसरों के दुःख को दूर करने का वह निरन्तर प्रयास करता है। इस क्रम में वह अपने स्वयं के दु:ख के निराकरण के उपाय का प्रारम्भ भी नहीं कर पाता। उसे इस तथ्य का ज्ञान नहीं हो पाता है कि कोई अन्य व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के कष्ट का समाधान नहीं कर सकता, क्योंकि पूर्वजन्म में किए गए अपने प्रत्येक कर्म का फल प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं भोगना पड़ता है। अतएव प्रत्येक जीवधारी को अपने से भिन्न समझना चाहिए तथा उसके दु:ख का कारण स्वयं को नही समझना चाहिए।१३४ व्यक्ति को यह विचार करना चाहिए कि कोई किसी का स्वजन नहीं है और कोई किसी का परजन नहीं है। अतीत काल में समस्त अनन्त जीव समस्त अनन्त प्राणियों के स्वजन या परजन थे। भविष्य काल में भी सभी प्राणियों के सभी जीव स्वजन एवं परजन होंगे। १३५ आचार्य कार्तिकेय का मत है कि माता-पिता, बन्धु-बान्धव एवं पुत्रादि सभी इष्ट जन मेरे नहीं हैं। यह आत्मा उनसे सम्बन्धित नहीं है। वे सभी कर्मवशात् संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं और पथिक की भाँति मिलते एवं बिछुड़ते हैं।१३६ आचार्य शिवार्य का विचार है कि उपकार और अपकार करने के कारण ही कोई किसी का स्वजन या परिजन होता है। यथा- माता-पिता पुत्र का पालन इस आशय से करते हैं कि वृद्धावस्था में पुत्र उनका सहायक होगा। पुत्र माता-पिता का आदर-सत्कार इस विचार से करता है कि इन्हीं के कारण मेरा जन्म हुआ है अर्थात् इन्हीं की कृपा से मेरा इस लोक में आगमन हुआ है। यदि किसी कारणवश इन सम्बन्धों में परस्पर कोई तनाव या विकार उत्पन्न हो जाता है तो वही माता-पिता-पुत्र आदि एक-दूसरे को परजन समझने लगते हैं। ५३७ अत: व्यक्ति को न तो किसी से राग करना चाहिए न द्वेष ही। उसे यह विचार रखना चाहिए कि सभी प्राणी मुझसे भिन्न हैं और मैं सभी से भिन्न हूँ।१३८ । ___ यह भावना समाधिमरण में इसलिए सहायक है, क्योंकि इसका चिन्तन करने से व्यक्ति को संसार के अन्य सभी जीवों से अपनी मित्रता का परिज्ञान होता है और वह यह सोचता है कि उसे किसी जीव के प्रति राग-द्वेष का भाव नहीं रखना चाहिए। इससे व्यक्ति को कषायों के कुशीकरण में भी सहायता मिलती है। संसार के सभी जीवों को अपने से इतर समझने के कारण व्यक्ति उन जीवों के प्रति अपने ममत्व का त्याग करता है। अत: इस भावना से भी रूपी कषाय को कृश करने में सहायता मिलती है। साधना के क्षेत्र में इस भावना की उपयोगिता इस रूप में है कि यह व्यक्ति को बाह्य सम्बन्धों की भिन्नता से अवगत कराती है। वह अपने इनसे आदि भावों से मुक्त हो जाता है, फलत: व्यक्ति का मन एकाग्र हो जाता है। वह अपने साधना-पथ पर आगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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