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समाधिमरण का व्यवहार पक्ष
१५१ मित्र तथा दुराचार से युक्त आत्मा शत्रु है। दुराचार में प्रवृत्त आत्मा अपना जितना अधिक अनिष्ट करती है उतना अनर्थ उसका गला काटनेवाला शत्रु भी नहीं करता । ऐसा निर्दयी संयमहीन पुरुष (आत्मा) मृत्यु के मुख में प्रविष्ट होकर अपने दुराचार को जानकर पश्चाताप करता है। १२८ मरणविभत्ति में एकत्व-भावना पर विचार करते हुए कहा गया है कि जीव अकेले ही कर्म करता है और अकेले ही अपने कर्मों का फल भी भोगता है। जीव अकेले ही सद्गति (मृत्यु) को प्राप्त करता है। मृत्योपरान्त वह अकेले ही परलोक गमन करता है। उसके साथ उसके स्वजन परलोक नहीं जाते। १२९ भगवती आराधना में एकत्व-भावना का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि मेरे आत्मीयजन, धन-वैभव, शरीर आदि परिग्रह मेरे साथ परलोक नहीं जायेंगे। ये केवल इसी लोक तक साथ रहेंगे, क्योंकि जीव अकेले ही परलोक जाता है।१३० इस लोक में जो हमारे बन्धु-बान्धव हैं वे परलोक में हमारे बन्धु-बान्धव नहीं हैं, इसी प्रकार धन, शरीर, शयन आसनादि समस्त परिग्रह इसी लोक में काम आते हैं, परलोक में नहीं । कभी-कभी तो ये परिग्रह इस लोक में ही व्यक्ति का साथ छोड़ देते हैं। अत: यह आशा करना व्यर्थ है कि ये समस्त परिग्रह परलोक में हमारे साथ रहेंगे। १३१ व्यक्ति अपने पिता-पुत्र, मित्र, पत्नी, बन्धु-बान्धव के प्रति जो कर्म करता है उसका फल वह अकेले ही भोगता है, उसके पिता-पुत्र, बन्धु-बान्धव नहीं।१३२
__इस भावना के चिन्तन से व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाता है कि वह अकेले ही सभी कर्मों का कर्ता-भोक्ता है। धन-सम्पत्ति, आत्मीयजन, जिनके लिए वह पापकर्म या पुण्यकर्म करता है वे सभी उसका साथ छोड़ देनेवाले हैं। यह शरीर भी साथ छोड़नेवाला है, अत: इनके प्रति प्रीति नहीं रखनी चाहिए। आत्मा को सत्कर्मों में लगाकर राग-द्वेष से मुक्त रहना चाहिए। इस प्रकार यह समाधिमरण करने में सहायक होती है।
साधना के क्षेत्र में एकत्व-भावना अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है। व्यक्ति के मन में आत्मविश्वास जगाती है और उसकी पराङ्मुखता को समाप्त करती है। व्यक्ति के मन में इस भावना का संचार करती है कि जिन स्वजनों के लिए वह पापकर्म का संचय करता आ रहा है, वे सभी उसके सहायक नहीं हो सकते। इसके अतिरिक्त यह ज्ञान प्रदान करती है कि व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ ही उसका एकमात्र सहायक है। अपना हित और अहित दोनों उसी के हाथ में है। अन्यत्व-भावना
जगत के सम्पूर्ण पदार्थों से स्वयं को भिन्न समझना और इस भिन्नता का पुन:- .. पुनः विचार करना ही अन्यत्व-भावना है। मरणविभत्ति के अनुसार आत्मा से यह शरीर । भिन्न है, हमारे बन्धु-बान्धव, अन्य संसार के समस्त भौतिक पदार्थ तथा रिश्ते-नाते हमसे
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