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________________ १४८ समाधिमरण फेन के बुलबुले नष्ट होते हैं, उसी प्रकार यह शरीर भी अवश्य नष्ट होगा। ११३ अत: व्यक्ति इस शरीर के नष्ट होने पर दुःखी नहीं होना चाहिए। उसे इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि जिस प्रकार पक्षी दिन निकलने पर वृक्ष को छोड़कर अपने-अपने रास्ते की तरफ चल पड़ते हैं, उसी प्रकार प्राणी भी अपनी आयु पूर्ण होने पर अपने-अपने कर्मों के अनुसार अन्य योनियों में उत्पन्न होते हैं । १४४ इस प्रकार हम देखते हैं कि अनित्य - भावना के चिन्तन से व्यक्ति के मन में सांसारिक वस्तुओं, शरीर की नश्वरता आदि का ज्ञान होता है। इसके द्वारा व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं से अपने राग आदि का निषेध करता है। राग का निषेध होने से उसकी आसक्ति देह तथा सांसारिक वस्तुओं पर से हटती है । अत: वह बन्धन से हटकर मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर होता है। इस भावना का चिन्तन करने से व्यक्ति का मन सांसारिक वस्तुओं से विरत हो जाता है तथा उसके मन में किसी भी वस्तु के प्रति किसी प्रकार का राग नहीं रहता है। जहाँ तक साधना में इस भावना की उपयोगिता का प्रश्न है तो इसके चिन्तन से व्यक्ति का मन सांसारिक विषय-वस्तुओं से हटता है, फलतः व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एकाग्र चित्त होकर आगे बढ़ता है। अशरण- भावना “विकराल मृत्यु से बचाने में कोई समर्थ नहीं है”- इस प्रकार की भावना का अर्थ अशरण-भावना है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि जिस प्रकार मृग को सिंह पकड़कर ले जाता है उसी प्रकार अन्त समय में मृत्यु भी मनुष्य को ले जाती है। मातापिता, भाई-बहन या कोई भी उसे मृत्यु के पंजे से मुक्त नहीं करा सकता। ११५ मरणविभत्ति के अनुसार जन्म- जरामरण से कोई नहीं बच सकता है। विविध प्रकार के मांगलिक कार्य, मन्त्र-तन्त्र, पुत्र, मित्र, बन्धु बान्धव जीव को मृत्यु से नहीं बचा सकते । ११६ भगवतीआराधना में अशरण-भावना पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि जीव (व्यक्ति, मानव ) अपने कर्मबन्ध के परिणाम के कारण अशरण है, क्योंकि आत्मा कर्मों के कारण ही बन्धन में पड़ती है। जीव के कषायरूप परिणामों के निमित्त उनके कर्मों की दीर्घ स्थिति होती है। प्राप्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव उनके सहकारी कारण होते हैं। जब वे कर्म अशुभ फल देते हैं तो उससे व्यक्ति को कोई नहीं बचा सकता । ११७ कर्मों के उदय के फलस्वरूप जन्म, जरा, मरण, रोग, चिन्ता, भय, वेदना, आदि दुःख उत्पन्न होते हैं जो व्यक्ति को भोगने पड़ते हैं । ११८ इस अवस्था में व्यक्ति का कोई भी रक्षक या शरणागत नहीं होता है । रोग का प्रतिकार तो औषधि आदि के द्वारा किया जा सकता है, लेकिन कर्म का प्रतिकार नहीं किया जा सकता। कर्म के उदय होने पर महापराक्रमी, महाबलशाली व्यक्ति भी उसके फल से किसी को नहीं बचा सकता। सभी प्रकार की विद्या, मन्त्र-तन्त्र, राजनीति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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