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समाधिमरण का व्यवहार पक्ष
आदि इसके सामने निष्फल हो जाते हैं । ११९
आत्मा पर कर्मों का आवरण रहने के कारण व्यक्ति संसार को अपना शरणस्थल समझने लगता है। वह नानाप्रकार के दुःखों को भोगता हुआ भी इस संसार में रहने की कामना करता रहता है। लेकिन व्यक्ति को ऐसा विचार करना चाहिए कि असातावेदनीय कर्मों के उदय होने पर इन कर्मों का नाश सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यग्तप के द्वारा ही सम्भव है, अतः यही मेरे लिए रक्षक और शरणागत है । १२०
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अशरण-भावना समाधिमरण करने में सहायक है । इस भावना का चिन्तन करने से व्यक्ति को यह ज्ञान होता है कि वह अपने कर्मों का भोक्ता स्वयं है। उसके समस्त बन्धुबान्धव आदि उसके कर्मों का उपभोग नहीं कर सकते । इससे व्यक्ति अपने कषायों को अल्प करता है, क्योंकि इसकी सहायता से वह सांसारिक वस्तुओं, रिश्ते-नाते, धनवैभव आदि पर से अपने मोह का त्याग करता है और अपने राग को दूर करता है । साधना में इसकी उपयोगिता यही है कि यह भावना व्यक्ति को सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र तथा सम्यग्तप को शरणभूत मानने का सन्देश देती है और इस प्रकार व्यक्ति मुक्तिपथ पर अग्रसर होता है।
संसार - भावना
संसार की दुःखमयता का विचार करना संसार - भावना है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि जन्म दुःखमय है, रोग और मरण दुःखमय है । यह सम्पूर्ण संसार दुःखमय है जिसमें प्राणी को क्लेश प्राप्त हो रहा है । १२१ यह लोक मृत्यु या मरण से पीड़ित है, जरा से घिरा है और रात-दिनरूपी शस्त्रधारा से त्रुटित है। १२२
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से
मरणविभक्ति के अनुसार यह संसार दुःखमय है। यहीं जीव समस्त प्रकार के बन्धनों से बंधा रहता है और दुःख को भोगता है। जीव अपने बन्धु बान्धव, मित्र-पुत्र, धनवैभव, भोग-विलास आदि के साधनों का विनाश होने पर, शरीर में रोग-व्याधि होने पर दुःखी होता है। इस संसार में सर्वत्र दुःख का साम्राज्य है। इससे व्यक्ति का बचना कठिन है। इस संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ व्यक्ति जन्म-मरण आदि के क्लेशों मुक्त हो।१२३ भगवती आराधना के अनुसार यह संसार महासमुद्र के समान अनन्त और अथाह दुःखों से भरा पड़ा है। इसे पार करना कठिन है । क्योंकि इस संसार - र-समुद्र में अनन्तकाय पाताल है तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव परिवर्तन रूप जिसमें भँवर हैं, चार गति रूप महान् द्वीप हैं जो अनन्त हैं । १२४ इस संसाररूपी समुद्र में हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म, परिग्रहरूपी मगर आदि क्रूर जन्तु निवास करते हैं । जाति (नवीन शरीर धारण करना), जरा (वर्तमान शरीर के तेज, बल आदि में कमी होना), मरण (शरीर त्याग)
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