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________________ १४६ समाधिमरण शय्या जनित परीषह के शमन हेतु उपर्युक्त चिन्तन करता है। उपवास के अन्तर्गत शारीरिक रोग या व्याधि से पीड़ित होने पर तथा उससे उत्पन्न असह्य वेदना की स्थिति में व्यक्ति को अपने मन में यह विचार करना चाहिए कि ये सभा "रोग-व्याधि पूर्व भवों के अर्जित अशुभ कर्मों के फल हैं और इनका जबतक उपभोग नहीं किया जाएगा ये अशुभ कर्म नष्ट नहीं होगें । १०५ अतः ये मेरे लिए कष्टकारक नहीं होकर हितकारी ही हैं, क्योंकि इनकी सहायता से मेरे पूर्व-भवों के अर्जित कर्मों का क्षय हो रहा है इसलिए इन्हें हितकारी मानकर व्यक्ति को रोग-व्याधि के कष्टों से दुःखी नहीं होना चाहिए। इस अवस्था में भी उसे अपने साधनामय मार्ग पर अविचल रहना चाहिए। जहाँ तक संभव हो रोग-व्याधि के कारण उत्पन्न शारीरिक कष्टों को निर्लिप्त भाव से सहन करना चाहिए। ऐसा करना साधक के लिए कठिन कार्य नहीं है, क्योंकि वह समाधिमरण की साधना शरीर और आत्मा के अंतर को समझकर ही प्रारम्भ करता है। आत्मशोधन के लिए शरीर को कृश करना ही पड़ता है, शरीर को कष्ट देना ही पड़ता है। इस कष्ट से घबरा जाने का अर्थ है शरीर के प्रति मोहभाव रखना, जबकि समाधिमरण शरीर के प्रति निर्ममत्व होने की प्रक्रिया का नाम है। दान, समाधिमरण की साधना में व्यक्ति को अपने मन को शुभध्यान और शुभचिन्तन में लगाना चाहिए। ऐसे चिन्तन को जैनधर्म में अनुप्रेक्षा या भावना कहा गया है। जैन दर्शन में भावना मन का वह भावात्मक पहलू है जो साधक को उसकी वस्तुस्थिति का बोध कराता है। जैन परम्परा में भावनाओं के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया हैशील, तप एवं भावना के भेद से धर्म चार प्रकार के हैं। प्रत्येक धर्म का अपना अलग-अलग महत्त्व है, लेकिन जहाँ तक प्रभाव की बात है तो इन चतुर्विध धर्मों में भावना ही महाप्रभावशाली है। संसार में जितने भी सुकृत्य हैं, धर्म हैं, उनमें केवल भावना ही प्रधान है। भावनाहीन धर्म शून्य है। वास्तव में भावना ही परमार्थस्वरूप है। भाव ही धर्म का साधक कहा गया है और तीर्थंकरों ने भी भाव को ही सम्यक्त्व का मूल मन्त्र बताया है । १०६ कोई व्यक्ति कितना ही दान करे, चाहे समग्र जिन-प्रवचन को कण्ठस्थ कर ले, उग्र से उग्र तपस्या करे, भूमि पर शयन करे, दीर्घकाल तक मुनिधर्म का पालन करे, लेकिन यदि उसके मानस में भावनाओं की उद्भावना नहीं होती है, तो उसकी समस्त क्रियाएँ उसी प्रकार निष्फल हैं जिस प्रकार से धान्य के छिलके का बोना निष्फल है। १०७ आचार्य कुन्दकुन्द ने भावपाहुड में कहा है कि व्यक्ति चाहे श्रमण हो अथवा गृहस्थ, भाव ही उसके विकास में कारणभूत होता है। भावरहित श्रवण एवं अध्ययन का क्या लाभ?१०८ जैन आचार्यों ने भावनाओं को मोक्ष का सोपान कहा है। बहुत से जैन ग्रन्थों में भावनाओं पर चर्चा की गई है जिनमें से कुछ ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं- उत्तराध्ययन, भावपाहुड, भगवती आराधना, योगशास्त्र आदि। इन समस्त ग्रन्थों में भावनाओं या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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