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________________ समाधिमरण का व्यवहार पक्ष व्यक्ति करते हुए क्षुधा वेदना को शान्त करना चाहिए | क्षुधा के दोषों को स्मरण करते हुए यह विचार करता है कि इसी वेदना के कारण जीव संसार के भवचक्र में फँसा रहता. है और सभी प्रकार के दुःखों को भोगता है। आहार स्वादानुभूति का परिचायक है, अतः जो जिह्वा के वशीभूत है उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, क्योंकि भोजन में आसक्त होने से वह भक्ष्य - अभक्ष्य का विचार नहीं करता । यदि उसकी बुद्धि तीक्ष्ण होती है तो वह भी मन्द हो जाती है, क्योंकि रसों में रागरूपी मल से लिप्त होने से बुद्धि भक्ष्य वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं देख पाती। इसके अतिरिक्त आहार का लम्पटी मनुष्य विषय सेवन करते हुए प्रमत्त की तरह अपने वश में नहीं रहता । १८ क्षुधा की यह वेदना कर्मों के संचय का कारण होती है। इसे अनशन से ही शान्त किया जा सकता है । ९९ अगर किसी कारणवश उपवास करनेवाले व्यक्ति को किसी प्रकार का रोग हो जाता है, तो वह स्वयमेव दूर हो जाता है। लेकिन अगर यही व्याधि किसी भोजनभट्ट को होती है, तो उसे दुःख और क्लेश मिलता है। १०. तृष्णारूपी वेदना का निराकरण व्यक्ति ज्ञान, ध्यान रूप सुधारस का पान करके करता है । १०१ वह अपने मन में यह विचार करता है कि मनुष्य योनि में जन्म लेकर तथा दरिद्रता से पीड़ित होकर कष्ट के निवारण के लिए धन कमाने के उद्देश्य से उसने इस संसार में परिभ्रमण किया, अपने परिभ्रमण काल में उसने अपनी देह और अन्तरात्मा दोनों को ही जलानेवाली तृष्णा को सहन किया। इस तरह से उसने तृष्णा एवं उससे उत्पन्न कष्टों को सहन किया है। अतः इस समय संन्यास की इस अवस्था में उत्पन्न होनेवाली तृष्णा रूपी वेदना व्यर्थ है, १०२ क्योंकि यह व्यक्ति को धीरता, माहात्म्य, कृतज्ञता, विनय और धर्म-श्रद्धा जैसे सद्गुणों से निरत करती है । दुर्भिक्ष में व्यक्ति अपनी क्षुधा शांति हेतु बिल्ली, मच्छी, सर्पिणी की भाँति अपने संतानों का ही भक्षण कर लेता है और इस लोक तथा परलोक में दु:खी होता है। १०३ संतान की मृत्यु अपने आप में सबसे बड़ा दुःख माना गया है और उसी संतान की मृत्यु स्वयं के आहार के निमित्त करना दुःख की पराकाष्ठा ही कही जा सकती है। १४५ कठोर नंगी भूमि पर तृणों से बनी शय्या पर सोने से किसी प्रकार का कष्ट होने पर व्यक्ति अपने मन में इस तरह के विचार करके शय्या रूपी परीषह या वेदना को जीतता है- दरिद्रता की स्थिति में या उदरपोषण हेतु पृथ्वी पर भटकते हुए मनुष्य के भव में भी अनेक बार कठिन शय्या पर सोया हूँ। मैंने परवश होकर शय्या जनित दुःखों को भोगा है और उससे जो अपार कष्ट मुझे हुआ है उसके सामने इस अमृदु शय्या का यह क्षणिक कष्ट कुछ नहीं है।१`* क्षुधापीड़ित शरीर को शयन हेतु उपयुक्त स्थान नहीं मिलने पर काफी कष्ट होता है। तृणादि से बनी शय्या शरीर में चुभती रहती है। जिसके कारण क्षपक को शरीर जनित यह कष्ट कभी-कभी असह्य भी हो जाता है। यह स्थिति साधक को उसके व्रत-मार्ग से स्खलित भी कर सकती है। अतः मार्ग-स्खलन से बचने के लिए ही साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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