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________________ १४४ समाधिमरण आगमन की प्रतीक्षा करनी चाहिए। मरणविभक्ति के अनुसार संस्तारक पर आरूढ़ व्यक्ति नि:शल्य और नि:कषाय होकर शान्तभाव से मृत्यु आगमन की प्रतीक्षा करता है। भगवती आराधना के अनुसार संस्तारक पर आरूढ़ व्यक्ति राग-द्वेष से रहित होकर मृत्यु आगमन की प्रतीक्षा करता है। समाधिमरण हेतु अपेक्षित जीवनदृष्टि सामान्यत: व्यक्ति राग-द्वेषादि काषायों से ग्रसित तथा अपनी देह के प्रति ममत्व का भाव बनाए रखता है। इसी ममत्व के कारण व्यक्ति बन्धन में रहता है और मुक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता है। मुक्ति प्राप्त करने के लिए राग-द्वेषादि कषायों को अल्प करने की आवश्यकता होती है। समाधिमरण के द्वारा मुक्ति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता जिसके कषाय क्षीण हो चुके हैं। अत: समाधिमरण ग्रहण करने के लिए मुख्य रूप से राग-द्वेषादि काषायों को क्षय करना होता है। मरणविभक्ति में कहा गया है कि व्यक्ति मुख्य रूप से क्रोध, मान, माया, और लोभ इन चार कषायों से युक्त रहता है। इन कषायों को क्रमश: क्षमा, मार्दव, आर्जव तथा सन्तोष की सहायता से कृश किया जाता है।९४ ये कषायें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्-चारित्र आदि गुणों का घात करती हैं जिनके कारण व्यक्ति संसार के भवचक्र में उलझा रहता है। इन्हीं के कारण व्यक्ति के मन में विकृति आती है और उसका योग अर्थात् मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रिया-कलाप शुद्ध नहीं रह पाता है। अत: इनकी शुद्धि के लिए इन्हें कृश करना आवश्यक है, क्योंकि इन्हें कृश कर लेने के पश्चात् ही व्यक्ति पञ्चेन्द्रिय रूप चोरों का विनाश करने तथा अन्य सभी तरह के सत्कर्मों को साधने में सफल होता है। इसलिए व्यक्ति को शुभध्यान और सत्कर्मों का आचरण करके इन चतुर्विध कषायों को कृश करना चाहिए।१५ देह को कृश करने के क्रम में व्यक्ति अपने मन में यह विचार करता है कि जिस देह का उसने अन्न जल के द्वारा पालन-पोषण किया है। उसी देह को तप-ध्यानादि के द्वारा कृश करके समाधिमरण का व्रत ग्रहणकर अपने जीवन को सफल बनाएगा९६ इसके लिए व्यक्ति को निरन्तर अपना आहार कम करते जाना चाहिए। सर्वप्रथम वह ठोस आहार का परित्याग करता है और मात्र जलीय आहार का सेवन करता है। तत्पश्चात् चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है और जीवनपर्यन्त उपवास करता है।९७ उपवास के अन्तर्गत व्यक्ति को क्षुधा, तृषा, शयन (शय्या), रोग-व्याधि आदि वेदनाओं की अनुभूति होने पर उनसे घबराना नहीं चाहिए और इन पर नियन्त्रण रखना चाहिए। क्षुधारूपी वेदना होने पर क्षुधा के समस्त दोषों तथा अनशन की महत्ता का चिन्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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