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________________ समाधिमरण का व्यवहार पक्ष १४३ क्लेश को क्षीण करने में व्यतीत करता है। जबकि इस तरह की स्पष्ट विधि मरणविभक्ति में नही मिलती है। अत: प्रथम चार वर्षों का मुख्य अन्तर इन तीनों में यही है कि जहाँ आचारांग में उपवास के बारे में निर्देश हैं, उत्तराध्ययन में मात्र सरस भोजन के त्याग का निर्देश है; वही भगवती आराधना में मात्र काय एवं क्लेशों को कृश करने के लिए तप करने का निर्देश है, किन्तु किस तरह के तप करने चाहिए इसका स्पष्ट निर्देश नहीं दिया गया है। बाद के चार वर्षों में आचारांग के अनुसार रस से रहित भोजन ग्रहण करने का निर्देश है, उत्तराध्ययन में विविध प्रकार के तप करने का निर्देश है, भगवती आराधना में रस से रहति भोजन लेने का निर्देश है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बाद के चार वर्षों को लेकर आचारांग एवं भगवती आराधना में साम्य है, जबकि उत्तराध्ययन की इन दोनों से भिन्नता है, क्योंकि इसमें तप का निर्देश करते हुए समस्त भोजन का त्याग प्रथम चार वर्ष में ही करने का निर्देश है। आचारांग एवं उत्तराध्ययन के अनुसार बाद के चार वर्षों में से प्रथम दो वर्ष में एकान्तर तप का निर्देश है, जबकि भगवती आराधना में इन दो वर्षों में कांजी और रूक्ष भोजन ही लेने का निर्देश है। आचारांग एवं उत्तराध्ययन के अनुसार ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छह महीने में बेला या उपवास तप तथा बाद के छह महीने में विकृष्ट तप तेला आदि का निर्देश है, लेकिन भगवती आराधना में यह विभाजन नहीं है और सीधे-सीधे ग्यारहवें वर्ष के पूर्ण समय तक कांजी आहार लेने का निर्देश है। आचारांग एवं उत्तराध्ययन के अनुसार व्यक्ति बारहवें वर्ष में अपने भोजन में धीरे-धीरे कमी करता है और अन्त में आहार का त्याग कर देता है, लेकिन भगवती आराधना के अनुसार बाहरवें वर्ष के प्रथम छह महीने व्यक्ति को मध्यम तप एवं बाद के छह महीने में उत्कृष्ट तप करने का निर्देश है। उपसर्गों को सहन करने का निर्देश तो सभी ग्रन्थों में है, लेकिन संस्तारक (मृत्युशय्या) ग्रहण करने का निर्देश जहाँ आचारांग, मरणविभक्ति, भगवती आराधना में स्पष्ट है वहीं उत्तराध्ययन में इस सम्बन्ध की चर्चा नहीं मिलती है। आचारांग में गाँव से बाहर निर्जन क्षेत्र में जीव-जन्तुओं से रहित भूमि पर संस्तारक बिछाने का निर्देश है। मरणविभक्ति के अनुसार गाँव से दूर पहाड़ की गुफा आदि क्षेत्रों में जीव-जन्तुओं से रहित भूमि पर संस्तारक बिछाने का निर्देश है, जबकि भगवती आराधना में जीव-जन्तु से रहित तथा मन में क्षोभ पैदा करनेवाले स्थानों से दूर एकांत में संस्तारक बिछाने का निर्देश मिलता है। संस्तारक पर बैठकर व्यक्ति को क्या करना चाहिए इसका निर्देश देते हुए आचारांग में कहा गया है कि समस्त प्रकार के उपसर्गों को सहन करते हुए मन को हिंसादि विकारों से पृथक् रखकर तथा रागादि भावों से मुक्त होकर देह का त्याग करना चाहिए। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि संस्तारक पर आरूढ़ व्यक्ति को समभावपूर्वक मृत्यु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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