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समाधिमरण मरण हेतु ही ग्रहण किया जा रहा है। इस प्रकार व्यक्ति काय और क्लेश को कृश करते हुए बाह्य और आभ्यन्तर शुद्धि करके समाधिमरण का व्रत ग्रहण करता है और संसार से मुक्ति को प्राप्त करता है।०७ मूलाचार
यह दिगम्बर परम्परा का आचार निरूपण करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। आचार्य वट्टेकर को इसका रचयिता माना गया है। इस ग्रन्थ में समाधिमरण लेने की विधि पर प्रकाश डालते हए कहा गया है- समाधिमरण व्रत लेनेवाले व्यक्ति को प्राणहिंसा, असत्यवचन, सम्पूर्ण अदत्तग्रहण, मैथून तथा परिग्रह का त्याग करना चाहिए। व्यक्ति को समस्त प्राणियों में समता का भाव रखना चाहिए । अपनी समस्त आकांक्षाओं का परित्याग कर देना चाहिए तथा संसार के समस्त जीवों के प्रति अपने वैर-भाव का त्याग करना चाहिए अर्थात् हित-अहित भाव से ऊपर उठकर क्षमा-भाव ग्रहण करना चाहिए।७९
व्यक्ति को सम्पूर्ण आहार विधि, आहार आदि संज्ञाओं, इस लोक तथा परलोक आदि की आकांक्षाओं का त्याग करना चाहिए। जब व्यक्ति का मरणकाल निकट हो तो मन में इस तरह का विचार करना चाहिए कि इस देशकाल में उपसर्ग के प्रसंग में यदि मेरा जीवन नही रहा तो मैं चतुर्विध आहार का त्याग करके देहत्याग करूँगा और अगर उपसर्ग टल गया तो पुन: आहार ग्रहण करुंगा। लेकिन अगर मृत्यु अवश्यम्भावी हो अर्थात् मृत्यु का होना टल नही सकता, तब सभी तरह के आहार आदि का मैं मनवचन-काय से त्याग करूँता।८१ आहारादि का ग्रहण शरीर को टिकाए रखने के लिए किया जाता है, लेकिन जब परिस्थितिवश शरीर को टिकाए रख पाना संभव नहीं होता
और इस प्रयत्न में धर्म से भ्रष्ट हो जाने की संभावना रहे तो क्षपक को आहारादि का त्याग करके देहपतन की प्रतीक्षा करनी ही चाहिए।
व्यक्ति अपने शरीर पर से ममत्व का भाव हटा लेता है वह सोचता है कि समस्त दुःखों का कारण यह शरीर ही है अर्थात् हर्ष, विषाद, जरा आदि इस शरीर के कारण ही हैं। क्योंकि शरीर ही जन्ममरण, सुख-दुःख का उपभोग करता है।८२ अत: व्यक्ति को इस नश्वर शरीर पर से ममत्व का भाव हटा लेना चाहिए तथा मन को धर्मध्यान या शुभध्यान में लगाना चाहिए । शरीर के नष्ट होने पर या मृत्यु जाने पर किसी तरह का प्रमाद नहीं करना चाहिए और न ही इस शरीर के प्रति किसी तरह का राग रखना चाहिए।
इस प्रकार शरीर पर से अपने ममत्व का त्याग करके प्रतिक्रमण करना चाहिए अर्थात् अपने समस्त दोषों के लिए सभी से क्षमा याचना करनी चाहिए तथा तीन तरह
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