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समाधिमरण का व्यवहार पक्ष
आभ्यन्तर समाधिमरण कहा जाता है । ६७
शरीर को कृश करने के लिए व्यक्ति नाना प्रकार के तपों का अभ्यास करता है और आहारादि को अल्प करते हुए क्रम से उसका त्याग करता है । " सर्वप्रथम व्यक्ति अपने आहार की मात्रा को कम करता है फिर धीरे-धीरे सभी प्रकार के रसों का परित्याग करता है और अन्त में रस से मुक्त आहार ग्रहण करता है । वह पीने के लिए उबले हुए जल का उपयोग करता है । बाद में व्यक्ति धीरे-धीरे अनशन तप प्रारम्भ करता है। पहले वह अनशन करने की अवधि को कम रखता है बाद में इस अवधि को बढ़ाता जाता है । ६९ इस प्रकार व्यक्ति रस से रहित भोजन तथा अनशन तप को करते हुए अपने शरीर का कृशीकरण करता है।
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समाधिमरण करने के क्रम में शरीर - कृशीकरण के साथ-साथ कषायों का भी कृशीकरण किया जाता है। मुख्य रूप से चार प्रकार के कषाय हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । व्यक्ति को इन चतुर्विध कषायों का कृशीकरण करना चाहिए। क्रोध को क्षमा की सहयाता से, मान को मार्दव की सहायता से, माया को सरलता की सहायता से तथा लोभ को सन्तोष की सहायता से क्षीण या उपशान्त करना चाहिए । कषायों को अल्प करने से व्यक्ति के राग-द्वेष दूर होते हैं और वह मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है। क्योंकि इन कषायों के कारण ही व्यक्ति तीव्र राग-द्वेष से जकड़ा रहता है। राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करके व्यक्ति सभी अवस्थाओं में समत्व का भाव बनाए रखता है अर्थात् दुःख के कारण वह दु:खी नहीं होता और सुख के कारण हर्षित भी नहीं होता है । वह सांसारिक ममत्व से दूर होकर जीवन और मृत्यु दोनों ही अवस्थाओं में समभाव बनाए रहता है।"
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समयानुसार समाधिमरण जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही प्रकार के होते हैं । जघन्य जहाँ छह मास का होता है वहीं उत्कृष्ट बारह वर्ष का। यह समय व्यक्ति आयंबिल तप, अनशन आदि के द्वारा व्यतीत करता है। इन तपों तथा अनशन की सहायता से मुख्य रूप से वह देह का कृशीकरण करता है । ७२ उत्कृष्ट समाधिमरण द्वारा साधक काय और कषाय को क्षीण करता है। काय और कषाय को क्षीण करते हुए वह अपने गुण-दोषों की आलोचना अपने आचार्य के पास जाकर करता है। ७३ समस्त जीवों के प्रति वह क्षमा का भाव रखता है। न तो किसी की निन्दा ही करता है और न ही किसी की बड़ाई । मोह, माया, प्रपंच से दूर होकर वह अपने राग-द्वेष से मुक्त होने का उपक्रम करता है। * उसके बाद गाँव, नगर से दूर पहाड़ की गुफा, जंगल आदि स्थानों पर जीवों से मुक्त भलीभाँति परिमार्जन करके संस्तारक को बिछाता है।७५ यहाँ पर वह निःशल्य, निः कषाए होकर शान्तभाव से मृत्यु आगमन की प्रतीक्षा करता है। जब तक मृत्यु नहीं आती है,
क्षेत्र का
वह अपने मन में शुभ विचारों का चिन्तन करता है । वह संस्तारक के रूप में घास, फूस
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या मात्रं जमीन का ही उपयोग करता है तथा यह चिंतन करता है कि यह संस्तारक विशुद्ध
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