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________________ समाधिमरण का व्यवहार पक्ष १४१ के आहार का त्याग करना चाहिए और पानक वस्तु का भी परित्याग कर देना चाहिए।८३ इस प्रकार से काय और कषाय का त्याग करते हुए समाधिमरण के द्वारा मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए। भगवती आराधना भगवती आराधना के अनुसार समाधिमरण का व्रत देह और कषाय दोनों को कृश करते हुए ग्रहण करना चाहिए।८४ देह का कृशीकरण आहारादि का त्याग करके तथा कषाय का कृशीकरण विभिन्न प्रकार के तप की सहायता से किया जाता है। __ शरीर के कृशीकरण के लिए सभी प्रकार के रसों से रहित रूखा भोजन ग्रहण करने तथा ५ दो प्रकार के अनशन अद्धानशन एवं सर्वानशन करने का विधान है। प्रतिसेवना काल में नियत कालावधि का अनशन अद्धानशन कहलाता है और मरण समय में जो अनशन किया जाता है, वह सर्वानशन कहलाता है।८६ अपनी साधना के क्रम में व्यक्ति जो आहार अब तक ग्रहण करता आया है उसकी भी मात्रा को कम करता है, अनशन करने के समय को बढ़ाता है तथा अपने बल या योग्यता के अनुसार अपने देह को कृश करता है। समाधिमरण व्रत को पूर्ण करने के लिए कषाय को अल्प करना होता है। कषाय मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ। इन कषायों को अल्प करने के लिए समाधिमरणधारी को इस तरह के तप करने होते हैं जो इन कषायों को शान्त कर दे । व्यक्ति को उन समस्त विकृतियों को त्याग देना चाहिए जो कषायरूपी अग्नि को पैदा करते हैं तथा उन सद्गुणों को अपनाना चाहिए जिससे कषायों का नाश हो।८ इस प्रकार व्यक्ति अपने कषाय और देह को कृश करते हुए समभावपूर्वक अपनी तपाराधना में व्यस्त रहता है। जब व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाता है कि उसकी आयु अब समाप्त होनेवाली है, तब वह गुरु के पास जाता है और अपने समस्त कर्मों की आलोचना करते हुए समभावपूर्वक मृत्यु को ग्रहण करता है।८९ __ प्रस्तुत ग्रन्थ में समाधिमरण व्रत पूर्ण करने के लिए बारह वर्ष का समय बतलाया गया है।९० बाहर वर्ष साधक को निम्नलिखित ढंग से बिताने का निर्देश दिया गया है-९१ प्रथम चार वर्ष व्यक्ति नाना प्रकार के तप के द्वारा काय एवं क्लेशों को क्षीण करने में बिताता है। बाद के चार वर्षों में वह भोजन में समस्त प्रकार के रसों का परित्याग करके शरीर को सुखाता है। रसों के परित्याग से तात्पर्य यहाँ दूध, घी, दही आदि तथा मीठा, नमकीन आदि समस्त प्रकार के सरस पदार्थों का परित्याग करना है। शेष चार वर्षों में से दो वर्ष कांजी और रस-व्यंजन आदि से रहित भोजन खाकर व्यतीत करता है। बाद Jain Education International For Private &Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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