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समाधिमरण का व्यवहार पक्ष
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वह जीने और मरने की अभिलाषा नहीं रखे । ५१ सुख - दुःख में समत्व का भाव बनाए रखकर कर्मों की निर्जरा करनेवाले पथ की साधना करता है तथा राग-द्वेष कषाय आदि आन्तरिक तथा शरीर उपकरण आदि बाह्य पदार्थों का व्युत्सर्ग या त्याग करके शुद्ध अध्यात्म की एषणा (अन्वेषण) करता है । ५२ समाधिमरण लेने के काल में यदि व्यक्ति को अपने जीवनयापन में किसी भी तरह के आतंक आदि का प्रारम्भ जान पड़ता है तो उस समाधिमरण काल के बीच में ही व्यक्ति भक्तप्रत्याख्यान कर पण्डितमरण अपना लेता है५३ तब साधक या व्यक्ति ग्राम या वन में जाकर स्थण्डिल भूमि का अवलोकन करता है और जहाँ जीव-जन्तु से रहित स्थान होता है वहीं संथारा बिछा लेता है । ५* संथारा के लिए वह घास, कुश या इसी तरह की अन्य वस्तुओं का उपयोग कर सकता है। कभीकभी तो वह संथारे के लिए सिर्फ जमीन का ही उपयोग करता है । व्यक्ति संस्तारक पर निराहार होकर (त्रिविध या चतुर्विध आहार का त्याग ) शान्तभाव से लेट जाता है। उस समय परीषहों और उपसर्गों से आक्रान्त होने पर उसको समभावपूर्वक, सहजभाव से सहन करता है। मनुष्य द्वारा प्रतिकूल या अनुकूल उपसर्ग उत्पन्न करने पर भी वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता है । ५५ रेंगनेवाले जन्तु जैसे चींटी आदि प्राणी या आकाश में ऊपर उड़नेवाले जीव जैसे गिद्ध आदि या जमीन के अन्दर रहनेवाले जन्तु जैसे सर्प आदि समाधिमरण लेनेवाले व्यक्ति के शरीर पर हमला करते हैं और उसके मांस, रक्त आदि नोंच-नोच कर खातें हैं तो भी वे उन्हें न तो हटाते हैं और न ही मारते हैं; वरन् इनसे होनेवाले कष्टों को सहजभाव से सहन करते हैं । ६ साथ ही, इस प्रकार का चिन्तन करते हैं कि ये प्राणी मेरे शरीर का नाश कर रहे हैं, मेरे ज्ञानादि आत्मगुणों का नहीं। इस प्रकार शुभ विचार का चिन्तन करते हुए वे हिंसादि से पृथक् होकर उन उपसर्गों को सहन करते हैं । ५७ इस तरह के साधक शरीर उपकरणादि बाह्य ग्रन्थियों तथा रागादि अन्तरंग ग्रन्थियों से मुक्त होकर समाधिमरण के द्वारा देह का त्याग करते हैं और मुक्ति को प्राप्त करते हैं । ५८
उत्तराध्ययन
उत्तराध्ययन में समाधिमरण को पंडितमरण कहा गया है। पंडितमरण लेने की विधि पर प्रकाश डालते हुए लिखा गया है कि समाधिमरण (पंडितमरण) लेनेवाला व्यक्ति शरीर से सामायिक के अंगों का सेवन करे, दोनों पक्षों में पोषध करे, परन्तु एक रात्रि को कभी भी होन नहीं करे। १९ सामायिक तीन प्रकार की होती है- सम्यक् सामायिक, श्रुत सामायिक और देशव्रत सामायिक । निःशल्य आदि आठगुण सामायिक के अंग माने गये हैं और इनका स्मरण व्यक्ति को अवश्य करना चाहिए। जिस व्रत के द्वारा धर्म का पोषण किया जाय उसे पोषध कहते हैं। इसी कारण व्यक्ति को एक मास में दो पोषध नहीं तो
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