SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ समाधिमरण (असमर्थ) हो रहा हूँ, (ऐसी स्थिति में) वह भिक्षू क्रमशः (तप के द्वारा) आहार का संवर्तन (संक्षेप) करे और क्रमश: आहार का संक्षेप करके कषायों को कृश (स्वल्प) करे। कषायों को स्वल्प करके समाधियुक्त लेश्या (अन्त:करण की वृत्ति) वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय दोनों ओर से कृश बना हुआ भिक्षु समाधिमरण के लिए उत्थित होकर शरीर के सन्ताप को शान्त कर ले। श्री मधुकरमुनि जी ने आचारांग की अपनी व्याख्या में समाधिमरण का कालगत विभाजन करते हुए इसे जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट कहा है।४८ उनके अनुसार जघन्य समाधिमरण का काल १२ पक्ष, मध्यम १२ मास का तथा उत्कृष्ट १२ वर्ष कालपरिमाण का होता है। उनके मतानुसार समाधिमरण का अधिकतम काल १२ वर्ष का होता है जबकि न्यूनतम समयावधि १२ पक्ष की। १२ पक्ष का समय अत्यंत अल्प होता है जबकि १२ वर्ष की समयावधि काफी लंबी होती है। इस लंबे काल में साधक के समक्ष विभिन्न तरह की बाधाएँ उपस्थित हो सकती हैं। अस्तु साधक को इन सबसे अपने को मुक्त रखकर संयम की आराधना करने का निर्देश दिया गया है। द्वादशवर्षीय समाधिमरण की विधि समाधिमरण का पूर्ण काल १२ वर्ष का माना गया है। इन बारह वर्षों में साधक शरीर और कषाय को कृश करने के लिए विभिन्न प्रकार के तपों का अभ्यास करता है। पूज्य मधुकरमुनि जी इसका विवेचन करते हुए लिखते हैं.९ -प्रथम चार वर्ष तक कभी उपवास, कभी बेला, कभी तेला, चोला या पंचोला, इस प्रकार चार वर्ष तक तप किया जाता है। तत्पश्चात् फिर चार वर्ष तक उसी तरह विचित्र तप किया जाता है। पारणा के दिन विगयरहित (रसरहित) आहार लिया जाता है। उसके बाद दो वर्ष तक एकान्तर तप किया जाता है, पारणा के दिन आयम्बिल तप किया जाता है। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम ६ मास तक उपवास या बेला तप किया जाता है, द्वितीय ६ मास में विकृष्ट तप-तेलाचोला आदि किया जाता है। पारणे में कुछ ऊनोदरीयुक्त आयम्बिल किया जाता है। उसके पश्चात् १२ वें वर्ष में कोटि सहित लगातार आयम्बिल किया जाता है। पारणा के दिन भी आयंबिल किया जाता है, अन्त में साधक भोजन में प्रतिदिन एक-एक ग्रास को कम करतेकरते एक ग्रास (सक्थ) भोजन पर आ जाता है। पूज्य मधुकरमुनि जी का यह विवेचन आचारांग पर आधारित है। इस कालावधि में जो भी संकट अथवा उपसर्ग साधक के समक्ष उपस्थित होते हैं उनके निदान के लिए भी आचारांग में उल्लेख मिलता है। इन बारह वर्षों में साधक कषायों को कृश (अल्प) करके अल्पाहारी बनकर परीषहों एवं दुर्वचनों को सहन करता है। यदि भिक्षु ग्लानि को प्राप्त करता है, तो आहार के पास नहीं जाता है अर्थात् आहार का सेवन ही नहीं करता है।५० अनशन साधना में स्थित साधक न तो जीने की आकांक्षा करता है न मरने की अभिलाषा ही करता है अर्थात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy