________________
समाधिमरण का व्यवहार पक्ष जो सांसारिक आकांक्षाओं से मुक्त हो, जितेन्द्रिय हो, समस्त राग-द्वेष से स्वयं को दर रखनेवाला तथा जिसका मन क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायों से रहित हो, जिसे अपने गृहीत व्रतों का ज्ञान हो तथा जो जीवन और मृत्यु दोनों ही स्थितियों में" समता का भाव रखता हो। समाधिमरण ग्रहण करने की विधि
समाधिमरण एक कठिन साधना होने के साथ-साथ विशिष्ट प्रकार की क्रियाविधि की अपेक्षा रखता है। पूर्व में हमने समाधिमरण को ४० अधिकारद्वारों के माध्यम से इसे समझने का प्रयत्न किया तथा योग्यता एवं योग्य अवसर के अनुक्रम में भी इसकी विशिष्टता को समझने का सुअवसर मिला। जैसा कि हमें ज्ञात है कि समाधिमरण की
अधिकतम अवधि बारह वर्ष की मानी गई है। यह द्वादशवर्ष का समय किस रूप में बिताया जाना चाहिए जिससे कि व्यक्ति के काय और कषाय दोनों अल्प हो सकें, इस विषय पर श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्य जैन ग्रंथों में पर्याप्त चिन्तन हआ है। इस हेतु हमनेआचारांग, उत्तराध्ययन, मरणविभक्ति प्रकीर्णक, मूलाचार और भगवती आराधना जैसे प्राचीन जैन ग्रंथों को अपना आधार बनाया है। आचारांग
आचारांग में समाधिमरण लेने की विधि पर प्रकाश डालते हुए निम्नलिखित तीन क्रियाओं को अपनाये जाने का निर्देश दिया गया है ६
१. आहार को क्रमश: संक्षेप अर्थात् कम करना, २. कषायों का अल्पीकरण एवं उपशमन करना, तथा ३. शरीर को समाधिस्थ, शान्त एवं स्थिर रखने का अभ्यास करना।
समाधिमरण लेने की विधि में साधक को इसी क्रम का पालन करना चाहिए। समाधिमरण लेनेवाला साधक अपने शारीरिक सामर्थ्य के अनुसार शरीर को कृश करने के लिए आहारादि की मात्रा को अल्प करता है। क्रोध, मान, माया तथा लोभ आदि कषायों को अत्यन्त क्षीण एवं शान्त करता है। इसके साथ ही शरीर, मन, वचन की प्रवृत्तियों को स्थिर कर आत्मीय गुणों को प्रकाशित करने के लिए शुभध्यान का चिन्तन करता है। ... आचारांग में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस भिक्ष के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाता है कि सचमुच में इस समय (साधु जीवन की आवश्यक क्रियाएँ करने के लिए) इस (अत्यंत जीर्ण एवं अशक्त) शरीर को वहन करने में क्रमश: ग्लान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org