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समाधिमरण
महाशतक था, आई। आकर महाशतक से बोली तुम मेरे साथ मनुष्य जीवन का विपुल सुख क्यों नहीं भोगते तुम्हें धर्म, मोक्ष, पुण्य, स्वर्ग आदि से क्या मिलेगा।४३ रेवती ने ऐसा बार-बार कहा, इस पर महाशतक को क्रोध आ गया। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर उपयोग लगाया। अवधिज्ञान द्वारा जानकर उसने अपनी पत्नी रेवती से कहा - मौत की कामना करनेवाली रेवती तु सात रात के अन्दर असलक नामक रोग से पीड़ित होकर आर्त-व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई आयु-काल पूरा होने पर अशान्तिपूर्वक मर कर अधोलोक में प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक चौरासी हजार वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी।४४ रेवती के साथ यह होनी घटित हुई। तत्पश्चात् भगवान् महावीर ने गौतम को महाशतक के पास उसके इस क्रोध के लिए प्रायश्चित करने को भेजा। गौतम ने महाशतक से कहा ५- "अन्तिम मरणान्तिक सल्लेखना (समाधिमरण) की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए सत्य, तत्त्वरूप तथ्य, सद्भूत वचन भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ तथा मन के प्रतिकूल हो तो उन्हें बोलना कल्पनीय नहीं है। हे देवानुप्रिय! तुमने अपनी पत्नी रेवती के प्रति ऐसे वचन बोले हैं, इसलिए तुम अपने धर्म के प्रतिकूल आचरण की आलोचना करो, प्रायश्चित्त स्वीकार करो। महाशतक ने तब प्रायश्चित किया और समाधिमरण को प्राप्त किया।
उपर्युक्त समस्त कथानक समाधिमरण व्रत ग्रहण करनेवाले व्यक्ति की योग्यताओं पर प्रकाश डालते हैं। समाधिमरण करनेवाले व्यक्ति को अपने मन, अपनी भावनाओं पर संयम रखते हुए सदाचार व्रत का पालन जीवनपर्यन्त करना चाहिए। उसे सांसारिक बन्धनों से पूरी तरह मुक्त रहते हुए अपने किसी बन्धु-बान्धव, परिवार, इष्ट-मित्र, पुत्र, पत्नी तथा अन्य प्रियजनों के सुख-दुःख से पूरी तरह विलग रहने का प्रयत्न करना चाहिए। विभिन्न प्रकार के ऐसे तप करने चाहियें जिनसे कि व्यक्ति का कषाय अल्प हो। समाधिमरण व्रत का ग्रहण व्यक्ति को लोक में प्रतिष्ठार्जित करने की इच्छा (लोकैषणा) से नहीं करना चाहिए। बहधा यह देखने में आता है कि व्यक्ति जीवन भर सांसारिक भोगों एवं वासनाओं की पूर्ती में लगा रहता है और जब उसका मृत्यु-काल सन्निकट आता जान पड़ता है तो वह यह घोषणा कर देता है कि "मैं समाधिमरण का व्रत ग्रहण करता हूँ।'' परन्तु इस तरह से समाधिमरण का व्रत ग्रहण करना उचित नहीं है। ऐसे भावावेश में किया गया समाधिमरण वस्तुत: समाधिमरण नहीं है, क्योंकि समाधिमरण का व्रत ग्रहण करनेवाले व्यक्ति का मन वासनाशून्य होना चाहिए। उसके मन में किसी तरह का लोभ नहीं होना चाहिए। सांसारिक भोगाकांक्षाओं का उसे पूर्णत: त्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि समाधिमरण का व्रत ग्रहण करने के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिये -
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