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समाधिमरण
का नाश होता है, तो मेरे यावज्जीवन के लिए चारों प्रकार के आहार का त्याग है। यदि कदाचित् किसी प्रकार से अपने पुण्य के द्वारा इस उपसर्ग से जीवित बच जाऊँगा तो धर्मसाधन के लिए मैं आगम-विहित पारण को करूँगा।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में उल्लेख है कि जरा, रोग, इन्द्रिय व शरीर बल की हानि होने पर तथा षडावश्यक के नाश होने पर समाधिमरण करना चाहिए । ११ सौभाग्यमुनि जी ने आचारांग की अपनी व्याख्या में समाधिमरण के उपर्युक्त अवसर पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार यथाक्रम संयम का पालन करते हुए अवस्था परिणाम से या अन्य कारणों से व्यक्ति का शरीर क्षीण और दुर्बल हो जाए, आवश्यक क्रियाओं का ठीक से पालन करने में अशक्य और असहाय हो जाए तो ऐसे समय व्यक्ति को समाधिमरण करना चाहिए । १२ १२ अपनी तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या में पं० सुखलाल संघवी ने लिखा है - व्यक्ति को जब अपना जीवनकाल बहुत अल्प प्रतीत होने लगे तथा वह धर्म और आवश्यक कर्तव्यों का सम्पादन ठीक से नहीं कर पाए तो उसे समाधिमरण करना चाहिए । १३ आचार्य तुलसी ने आयारो की अपनी व्याख्या में लिखा है- व्यक्ति का शरीर जब भारस्वरूप प्रतीत होने लगे ( वृद्धावस्था, रोग, उपसर्ग आदि के कारण ) तथा वह अपनी आवश्यक क्रियाओं का सम्पादन ठीक से नहीं कर पाता हो तो उसे समाधिमरण करना चाहिए । १४
न्यायविद् टी० के० तुकोल के अनुसार समाधिमरण करने का उपयुक्त अवसर जीवन की अन्तिम बेला है अर्थात् मृत्यु के आगमन का समय जब अत्यन्त समीप होता है, उस समय व्यक्ति समाधिमरण कर सकता है। १५ जैन धर्म-दर्शन के मर्मज्ञ डॉ० सागरमल जैन के अनुसार अनिवार्य मृत्यु के कारण उपस्थित होने पर समाधिमरण किया जा सकता है । मृत्यु के अनिवार्य कारण हो सकते हैं - अकस्मात कोई विपत्ति आ जाना जिससे प्राण-रक्षा सम्भव न हो, यथा- आग में घिर जाना, जल में डूबने जैसी स्थिति हो जाना, हिंसक पशु या किसी दुष्ट व्यक्ति के चंगुल में फंस जाना जिससे बचकर निकलना संभव न हो। इसके अलावा सामान्य और प्राकृतिक अवस्थाओं में भी व्यक्ति समाधिमरण कर सकता है। ये अवस्थाएँ हैं- जब व्यक्ति की समस्त इन्द्रियाँ अपने कार्यों का सम्पादन करने में अक्षम हो जाए, शरीर सूख कर अस्थिपंजर मात्र रह जाय, पाचन, आहार-विहार आदि शारीरिक क्रियाएँ शिथिल पड़ने लगे तथा इनके कारण साधना या संयम का परिपालन सम्यक् रीति से सम्भव नहीं हो तो व्यक्ति समाधिमरण कर सकता है । ६
पचन
भगवती आराधना में कुछ कथानकों के आधार पर समाधिमरण के उपर्युक्त अवसर के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है। ये कथानक जरा, रोग, वृद्धावस्था आदि के कारण समाधिमरण करनेवाले व्यक्तियों के न होकर उन व्यक्तियों के हैं, जिन्होंने किसी बाह्य उपसर्ग के कारण अपने धर्म या पवित्रता की रक्षा करने के निमित्त अपना देहत्याग किया था।
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