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समाधिमरण वृद्धावस्था एवं शरीर के जीर्ण हो जाने के अतिरिक्त आकस्मिक रूप से मृत्यु उपस्थित होने पर भी समाधिमरण किया जाता है। इस सम्बद्ध में अन्तकृद्दशा में समाधिमरण लेने के योग्य अवसर पर प्रकाश डाला गया है। सुदर्शन श्रमणोपासक भगवान् महावीर से मिलने के लिए राजमार्ग से जा रहा था। उसे देखकर अर्जुन मालाकार जो यक्ष से आविष्ट था और मनुष्यों को मारता फिर रहा था, क्रुद्ध, कुपित और रुष्ट होकर लोहे के मुद्गर से मारने को उद्यत हुआ। उस समय क्रुद्ध मुद्गरपाणि यक्ष को अपनी ओर आते देखकर सुदर्शन को अपनी मृत्यु की सम्भावना से किंचित् भी भय, त्रास, उद्वेग अथवा क्षोभ नहीं हुआ। उसका हृदय तनिक भी विचलित अथवा भयाक्रान्त नहीं हुआ। उसने निर्भय होकर अपने वस्त्र के अंचल से भूमि का प्रमार्जन किया फिर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठ गया। इसके बाद इस प्रकार बोला
"मैं उन सभी अरिहंत भगवन्तों को, जिन्होंने अतीतकाल में मोक्ष प्राप्त कर लिया है एवं धर्म के आदिकर्ता तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर को जो भविष्य में मोक्ष प्राप्त करनेवाले हैं, नमस्कार करता हूँ।' मैंने पहले श्रमण भगवान् महावीर से स्थूल प्राणातिपात का आजीवन त्याग (प्रत्याख्यान) किया, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान का त्याग किया तथा स्वदार संतोष इच्छा परिमाण रूप व्रत जीवन भर के लिए ग्रहण किया है। अब उन्हीं भगवान् महावीर स्वामी की साक्षी से प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और सम्पूर्ण परिग्रह का सर्वथा आजीवन त्याग करता हूँ। मैं सर्वथा क्रोध मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, पर-परिवाद, अरति-रति, मायामृषा, और मिथ्या दर्शन तक के समस्त (१८) पापों का भी आजीवन त्याग करता हूँ। सभी प्रकार के अशन, पान, खादिम और स्वादिम इन चारों प्रकार के आहार का भी त्याग करता हूँ। यदि मैं इस आसन्न मृत्यु उपसर्ग से बच गया तो इस त्याग का पारणा करके आहारादि ग्रहण करूँगा। यदि इस उपसर्ग से मुक्त न हो पाया तो मुझे इस प्रकार का सम्पूर्ण त्याग यावज्जीवन हो। ऐसा निश्चय करके सुदर्शन ने उपर्युक्त प्रकार से सागारी प्रतिमा-अनशन व्रत धारण कर लिया अर्थात् उसने समाधिमरण का निश्चय किया।
_इस प्रकार समाधिमरण के योग्य अवसर के सम्बन्ध में भगवती और अन्तकृद्दशा से कथानक जो लिया गया है उसमें कुछ अन्तर है। भगवती में जहाँ स्कन्दक आराधना करते हुए काय और कषाय दोनों को क्षीण करके समाधिमरण करता है वहीं अन्तकृद्दशा में सदर्शन अचानक अनिवार्य मृत्यु का कारण उपस्थित हो जाने पर समाधिमरण का व्रत लेता है। इन दोनों कथानकों से यही निष्कर्ष निकलता है कि जब व्यक्ति का शरीर इतना क्षीण हो जाए कि आवश्यक कार्यों के सम्पादन में कठिनाई हो तथा अनायास मृत्यु का प्रसंग उपस्थित हो जाए तो यह अवसर समाधिमरण के लिए उपयुक्त है।
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