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चतुर्थ अध्याय
समाधिमरण का व्यवहार पक्ष
समाधिमरण व्रत लेने के योग्य अवसर
जैनधर्म अपनी दीर्घ एवं कठोर तप साधना के लिए प्रसिद्ध है। जैन तप साधना की पद्धतियों में समाधिमरण का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः यह मरण की कला सिखानेवाला व्रत है। जैन आगमों में समाधिमरण व्रत ग्रहण करने के योग्य अवसर पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है। इस व्रत को व्यक्ति किसी भी अवस्था में और किसी भी समय ग्रहण नहीं कर सकता है। समाधिमरण व्रत ग्रहण करने के कुछ उपयुक्त अवसर होते हैं।
भगवती में समाधिमरण के योग्य अवसर को समझाने के लिए स्कन्दक मुनि का कथानक प्रस्तुत किया गया है, जो इस प्रकार है' - " स्कन्दक मुनि विभिन्न प्रकार के तपों की आराधना करते हुए रुक्ष हो गए, मांस रहित हो गए, चलने पर उनकी शरीर की हड्डियाँ आपस में टकराने लगीं, हड्डियों के आपस में टकराने से खड़-खड़ की आवाज होती थी। वे इतने कृशकाय और दुर्बल हो गए कि उनकी समस्त नाड़ियाँ सामने दिखाई पड़ने लगीं। चलने के लिए उनमें शारीरिक शक्ति नहीं थी। बोलने में और बोलने के बाद भी उन्हें शारीरिक कष्ट होता था। ऐसे समय में एक बार भगवान् महावीर राजगृह पधारे। महावीर ने अपना धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश के बाद समस्त श्रद्धालुजन वापस लौट गए। लेकिन स्कन्दक मुनि के मन में यह विचार आया- “मैं पूर्वोक्त प्रकार के उदार तप द्वारा शुष्क, रुक्ष एवं कृश हो गया हूँ। मेरा शारीरिकबल क्षीण हो गया है। मैं आत्मबल के सहारे गमन कर पाता हूँ। बोलने के बाद, बोलते हुए और बोलने के पूर्व मुझे कष्ट होता है। अत: जब तक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरस्कार, पराक्रम है और जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, तीर्थङ्कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यहाँ हैं, मुझे उनसे आज्ञा ग्रहण करके उनकी उपस्थिति में ही विपुलगिरि पर्वत पर डाभ (एक तरह की घास) का संथारा बिछाकर आत्मा को सल्लेखना से युक्त करके आहार जल का त्याग कर पादपोपगमन संथारा (समाधिमरण की तीन कोटियों में से एक) ग्रहण कर मृत्यु की आकांक्षा से विरत होकर मन को स्थिर और शान्त करके मृत्यु के आगमन की प्रतीक्षा करनी चाहिए।"
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