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समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप निर्झरिम होता है अर्थात् प्राणत्याग के पश्चात् दाह-संस्कार किया जाता है। ४२ क्षपक को कोई उसके उस स्थान पर से किसी कारणवश हटाकर दूसरे स्थान पर रख दे और उसका उस दूसरे स्थान पर मरण हो जाए तो वह निहार (निर्हारिम) प्रायोपगमनमरण कहलात है।
२. अनिहारिम - प्राणत्याग के पश्चात् यदि दाह-संस्कार नहीं किया जाता है तो यह मरण अनि रिम कहलाता है।२४४ भगवती आराधना में इसे स्पष्ट करते हए कहा गया है कि अगर क्षपक की मृत्यु उसके समाधि लेनेवाले स्थान पर ही हो तो उसका मरण अनिहार (अनिरिम) प्रायोगमनमरण कहलाता है।२४५
. आचारांग में प्रायोपगमनमरण पर चर्चा करते हुए कहा गया है कि इस मरण में मुख्य रूप से निम्नलिखित सात बातें विशेष आचरणीय होती हैं.४६
१. निर्धारित स्थान से स्वयं चलित नहीं होना। २. शरीर का सर्वथा व्युत्सर्ग करना।
परीषहों, उपसर्गों से जरा भी विचलित न होना, अनुकूल और प्रतिकूल
दोनों ही परिस्थितियों में समभाव रहना। ४. इहलोक और परलोक सम्बन्धी काम-भोगों में आसक्ति नहीं रखना।
सांसारिक वासनाओं और लोलुपताओं को नहीं अपनाना। शासकों या दिव्य भोगों के स्वामियों के द्वारा भोगों के लिए आमन्त्रित
किए जाने पर लालच नहीं करना। ७. समस्त प्रकार के पदार्थों से अनासक्त रहना।
समाधिमरण के इन तीनों प्रकार की चर्चा करने के बाद इन तीनों में मुख्य अन्तर क्या हैं? इस पर भी प्रकाश डाला गया है। भगवती आराधना के अनुसार २४७- भक्तप्रत्याख्यान मरण में क्षपक अपनी सेवा स्वयं करता है और दूसरों से भी करवाता है। इंगिनीमरण में अपनी सेवा स्वयं करता है, दूसरों से नहीं करवाता है तथा प्रायोपगमनमरण में क्षपक न तो स्वयं अपनी सेवा करता है और न ही दूसरों से सेवा करवाता है। यही उपर्युक्त तीनों में मुख्य अन्तर है।
आचार्य आत्मारामजी ने भी इन तीनों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए कहा है। भक्तप्रत्याख्यान में केवल आहार एवं कषाय का त्याग होता है, इसमें साधक एक स्थान ने दूसरे स्थान में आ जा सकता है। परन्तु इंगिनीमरण में भूमि की मर्यादा होती है, वह
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