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________________ १०६ समाधिमरण के योग्य संहनन और संस्थान को प्रायोग्य कहते हैं। प्रायोग्य की प्राप्ति होना - प्रायोग्यगमन है। पैरों से चलकर योग्य स्थान में जो मरण स्वीकारा जाता है, उसे पादोपगमन कहते हैं।" गोम्मटसार में प्रायोपगमनमरण पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि जिस शरीरत्याग में व्यक्ति अपने तथा दूसरे के द्वारा उपचार (सेवा) नहीं करावे अर्थात् अपनी टहल न तो आप करे और न दूसरों के करायें ऐसे मरण को प्रायोपगमनमरण कहते हैं।२३५ आचारांग में कहा गया है कि इस मरण को अंगीकार करनेवाला साधक जीव जन्तुरहित स्थण्डिलस्थान का सम्यक् निरीक्षण करके वहाँ अचेतनवत स्थिर होकर पड़ा रहता है ३६ जबकि भगवती आराधना में प्रायोपगमनमरण पर चर्चा करते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने शरीर को सम्यक् रूप से कृश करता है अर्थात् उसका अस्थि चर्म मात्र ही शेष रह जाता है, वही प्रायोगमनमरण करता है। इस मरण में व्यक्ति तृण या घास के संथारे का प्रयोग नहीं करता है, क्योंकि इसमें व्यक्ति न तो स्वयं अपनी वैयावृत्य (सेवा) करवाता है और न दूसरों से कराता है,२३७ परन्तु आचारांग में तृण अथवा घास के रूप में संथारे का प्रयोग करने का निर्देश दिया गया है। २३८ वह व्यक्ति जहाँ जिस स्थान पर पड़ा रहता है वहीं कटे हुए पेड़ के डाल की तरह पड़ा रहता है और सभी तरह की सांसारिक क्रियाओं से अपने को विरत कर लेता है। यदि कोई उसका अभिषेक करता है तो वह न तो उसको मना ही करता है और न ही ऐसा करने के लिए कहता है। कोई उसे किसी ऐसे स्थान पर उठाकर रख देता है जहाँ हिंसक पश-पक्षी रहते हों, जिसके कारण उसकी मृत्यु होने की सम्भावना रहती है तो भी वह समभावपूर्वक उसी स्थान पर आयु के समाप्त होने तक पड़ा रहता है।२३९ प्रायोपगमनमरण को स्वीकार करनेवाला क्षपक प्रारम्भ में ही यह निर्णय ले लेता है कि वह काष्ठवत अपने स्थान पर यावत्जीवन पड़ा रहेगा किसी भी तरह के उपसर्गों से विचलित नहीं होगा। इस तरह व्यक्ति प्रायोपगमनमरण कस्सा है। प्रायोपगमनमरण वही क्षपैक करता है जिसकी आयु अल्प रहती है। इसी कारण वह न तो स्वयं अपने शरीर की सेवा करता है और न दूसरों से करवाता है।२४० प्रायोपगमनमरण के दो भेद किए गए हैं२४१ - १- निहार अथवा निर्हारिम तथा २- अनिहार अथवा अनि रिम। १.नि रिम- यह अनशन यदि ग्राम आदि (बस्ती) के अंदर किया जाता है तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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