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________________ समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप १०५ व्यक्ति क्रम से आहार को कम करते हुए अन्ततः समस्त प्रकार के आहारों का त्याग कर देता है। | २२७ आचारांग में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि क्षपक बिना स्वाद. लिए ही प्रासुक एवं एषणीय या जैसा भी आहार मिलता हो ग्रहण करता है। इसमें यह बताया गया है कि साधक आहार को मुँह में रखकर एक ओर से दूसरी ओर न ले जाये अर्थात् जल्दी से जल्दी निगल जाये। इससे आहार के स्वाद की अनुभूति मात्र उसी तरफ वाले जीभ की होती है जिस तरफ आहार रहता है दूसरे भाग को नहीं। इस प्रकार अनासक्त भाव से वह आहार ग्रहण करता है, जिससे शरीर का रक्त और मांस सूख जाता है और अन्त में क्षपक आहार लेना भी बन्द कर देता है। साथ ही वह समस्त परिग्रहों का भी त्याग कर देता है। २२८ समस्त परिग्रहों का त्याग करके धैर्य बल से युक्त वह क्षपक सब परिग्रहों को जीतता है और लेश्या-विशुद्धि से सम्पन्न होकर धर्मध्यान करता है। २२९ वह विभिन्न प्रकार के तपों का अभ्यास करता है, जिसके प्रभाव से वह शुभ-अशुभ तथा हर प्रकार की सांसारिक, दैविक, वैक्रियकगृद्धिक (भूत, राक्षस), आहारिकगृद्धिक या चारणगृद्धिक अथवा क्षीरात्रवगृद्धिक से मुक्त हो जाता है। इसी तरह से इंगिनीमरण करके कोई तो समस्त क्लेशों से मुक्त हो जाता है और कोई मरकर वैमानिकदेव होता है । २३१ श्वेताम्बर मान्य साहित्य में इंगिनीमरण के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि इस अनशन पर दृढ़ विश्वास होने से भयंकर उपसर्गों के आ पड़ने पर भी क्षपक अनुद्विग्न, कृतकृत्य एवं संसार-सागर से पारगामी होता है । एक दिन वह इस समाधिमरण के द्वारा अपने जीवन को सार्थक करके चरमलक्ष्य - मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। सचमुच समभाव और धैर्यपूर्वक इंगिनीमरण की साधना से अपने शरीर का तो विमोक्ष होता ही है, अनेकों मुमुक्षुओं एवं विमोक्ष साधकों के लिए वह प्रेरणादायक बन जाता है । २३२ तात्पर्य यह हैं कि साधक भवयोनि के चक्र में न उलझकर सीधे निर्वाण प्राप्त कर सकता है। ३. प्रायोपगमनमरण प्रायोपगमनमरण में व्यक्ति अपनी समस्त क्रियाओं का निषेध कर देता हैं। वह अपने शरीर की सेवा न तो स्वयं करता है और न किसी अन्य से करवाता है। विभिन्न जैन, ग्रन्थों में इस मरण की चर्चा की गई है। इसे पाटोपगमन या पादपोपगमन के नाम से भी जाना जाता है। आचारांग की अपनी व्याख्या में आत्माराम जी म० ने इसे पादोपगमनमरण २३ कहा है। इस संबंध में मधुकर मुनि जी द्वारा सम्पादित आचारांग में लिखित विचारों को उद्धत करना भी समीचीन जान पड़ता है २३४ - दिगम्बर परंपरा में प्रायोपगमन के बदले प्रायोग्यगमन एवं पादपोपगमन के स्थान पर पादोपगमन शब्द मिलते हैं। भव का अंत करने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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