________________
१०४
समाधिमरण
में रहकर वैयावृत्य कराये बिना संथारा करना इंगिनीमरण है।
समवायांग, भक्तपरिण्णा, प्रवचनसारोद्धार में इंगिनीमरण का उल्लेख मिलता है। आचार्य शीलांक आचारांग की टीका में इंगिनीमरण के स्वरूप का विवेचन इस रूप में करते हैं:- क्षपक नियमपूर्वक गुरु के समीप चारो आहार का त्याग करता है और मर्यादित स्थान में नियमित चेष्टा करता है। करवट बदलना, उठना या कायिक गमन (लघनीति-बड़ीनीति) आदि भी स्वयं करता है। धैर्यवान, बलयुक्त मनि सब कार्य अपने आप करता है, दूसरों की सहायता नहीं लेता। इस प्रकार विधिपूर्वक इंगिनीमरण करके चरमपद का अधिकारी बनता है। गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) में इंगिनीमरण को स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि अपने शरीर की सेवा-सश्रृषा व्यक्ति अपने अंगों की सहायता से स्वयं करे, उसे किसी तरह का रोग हो जाए तो अपने रोग का उपचार भी स्वयं करे, उसका उपचार किसी अन्य से नहीं करावे इत्यादि । इन विधियों का पालन करते हुए यदि व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो इस मरण को इंगिनीमरण कहा जाता है।२२३
भगवती आराधना में इंगिनीमरण पर गहराई से विचार करते हुए इसके महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। इस ग्रन्थ के अनुसार जिस व्यक्ति को इंगिनीमरण ग्रहण करना होता हैं वह अपने परिचितों को इसकी सूचना दे देता है (यथा-संघ में रहनेवाले संघ के सदस्यों को) और वह व्यक्ति इंगिनीमरण से संबंधित विविध प्रकार की साधना अपनाकर अपने चित्त में यह निश्चय करता है कि मैं इंगिनीमरण करूँगा। तब शुभ परिणामों की सरणी पर आरोहण करके तप आदि की भावना का चिन्तन करते हुए अपने शरीर तथा कषायों को कृश करता है। २२४ रत्नत्रय में लगे दोषों की आलोचना करता है तथा अपने संघ से अलग होकर किसी एकान्त स्थान में निवास करने के लिए प्रस्थान करता है। वह एकान्त स्थान गाँव के बाहर, पहाड़ की गुफा, जंगल आदि हो सकता है। यदि वह व्यक्ति किसी संघ का आचार्य है तो अपने जगह किसी योग्य व्यक्ति को आचार्य पद पर आसीन करके संघ से प्रस्थान करता है। एकान्त स्थान पर वह इसलिए निवास करने चला जाता है, क्योंकि वहाँ उसके अपने शरीर के सिवाय कोई अन्य सहायक नहीं होता है।२२५
--एकान्त स्थान में क्षपक यह चिन्तन करता रहता है कि इस संसार में मेरा कोई सहयोगी नहीं है और न मैं किसी का साथ दे सकता हूँ, क्योंकि प्रत्येक आत्मा अपने
कृतकर्म के अनुसार सुख-दुःख का सेवन स्वयं करती है। कोई भी शक्ति उसमें परिवर्तन - नहीं कर सकती है। स्वयं आत्मा ही अपने सम्यक् पुरुषार्थ के द्वारा उस कर्म-बन्धन को तोड़कर मुक्त बन सकती है। इसीलिए यह आत्मा अकेला ही सूख-दुःख का संवेदन करती है और कर्म-बन्ध का कर्ता एवं हर्ता भी अकेला ही होती है।२२६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org