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________________ समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप १०३ म्लेच्छ, मूर्छा या विसूचिका आदि रोग से तत्काल मरण का कारण उपस्थित हो जाए तब व्यक्ति को अविचार भक्तप्रत्याख्यानमरण ग्रहण करना चाहिए। इसके तीन भेद हैं. १८ I. निरुद्ध, II. निरुद्धतर और III. परमनिरुद्ध । (J) निरुद्ध - तत्काल मरण का कारण उपस्थित हो जाए और व्यक्ति शक्तिहीन होने के कारण या रोगग्रस्त होने के कारण अपने ही संघ में रूका रहे, दूसरों से सहायता लेकर अपनी आराधनाओं का पालन करता हो, तो ऐसे व्यक्ति का मरण निरुद्ध भक्तप्रत्याख्यानमरण कहलाता है।२१८ (II) निरुद्धतर - तत्कालमरण का कारण उत्पन्न हो जाए और व्यक्ति का चित्त असह्य वेदना के कारण व्याकुल हो और उसे यह ज्ञात हो जाए कि उसकी आयु शीघ्र ही समाप्त होनेवाली है, तो ऐसे समय में उसे आचार्य के समीप अपने दोषों की सम्यक रूप से आलोचना कर रत्नत्रय की आराधना में तत्पर होकर वसति, संस्तर, आहार, उपधि, शरीर तथा अन्य सांसारिक वस्तुओं से अपने ममत्व का त्याग करना चाहिए। शक्ति से हीन होने के कारण वह किसी और स्थान पर नहीं जा पाता है, फलत: जिस स्थान पर रुका रहता है वहीं भक्तप्रत्याख्यानमरण करता है। ऐसे व्यक्ति का मरण निरुद्धतर भक्तप्रत्याख्यानमरण कहलाता है।२१९ (III) परम निरुद्ध - सहसा मरण का कारण उपस्थित हो जाये, सर्प आदि के डंसने के कारण वाणी भी नष्ट हो जाए और व्यक्ति को यह अनुभव हो जाए कि उसकी आयु समाप्त होनेवाली है, तो उसे किसी आचार्य के पास जाकर अपने अपराधों की आलोचना करनी चाहिए। ऐसे व्यक्ति के मरण को परमनिरुद्ध भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं।२२० २. इंगिनीमरण इंगिनीमरण का अर्थ है- अपने (आत्मा को) इंगित अर्थात् सामर्थ्य के अनुसार स्थित होकर प्रवृत्ति करते हुए मरण स्वीकार करना। इसमें व्यक्ति अपनी शारीरिक चेष्टाओं को नियमित कर लेता है तथा ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि मैं इस विशेष क्षेत्र की सीमा से बाहर नहीं जाउँगा। इस मरण में व्यक्ति अपनी सेवा स्वयं करता है। किसी और की सेवा वह नहीं लेता है, क्योंकि किसी और की सेवा लेने का इस.मरण में निषेध किया जाता है। जैन ग्रन्थों में इंगिनीमरण पर व्यापक रूप से चर्चा की गई है। अर्द्धमागधी कोश में इंगिनीमरण के स्वरूप को इस प्रकार स्पष्ट किया गया है२२१- शास्त्र में कही हुई हद (सीमा) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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