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में रत है। २१०
(३८) लेश्या - कषाय से अनुरक्त मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। ध्यान तथा अन्य अधिकारों की सहायता से क्षपक समस्त प्रकार के कषायों से मुक्त हो समता का भाव प्राप्त करता है और विशुद्ध लेश्यापूर्वक क्रम से पीत, पद्म और शुक्ल- इन तीन शुभ लेश्या का परिणमन करता हुआ उपशम या क्षपक श्रेणी पर आरोहण करता है। इन लेश्याओं की सहायता से क्षपक समस्त परिग्रहों का सर्वथा के लिए त्याग कर देता है, जिससे लेश्या में विशुद्धि आ जाती है । २१२
समाधिमरण
(३९) फल आराधना के फलस्वरूप जो मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति होती है, उसे आराधना का फल कहते हैं। आराधना करते हुए क्षपक केवलज्ञानी हो जाता है और वह सम्पूर्ण क्लेशों से मुक्त हो जाता है । उसकी जब मृत्यु होती है तो वह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। २६३
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(४०) परित्याग - क्षपक के देहत्याग करने के बाद जो क्रिया की जाती है, वह परित्याग है। क्षपक जब शरीर त्याग देता है अर्थात् उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसके शरीर को जंगल में मुनियों द्वारा ही विसर्जित करने की प्राचीन परम्परा थी । ऐसी स्थिति में उसके साथ मुनि के कुछ उपकरण भी रखे जाते थे। वर्तमान में तो गृहस्थों द्वारा दाहसंस्कार किया जाता है। क्षपक की जिस समय मृत्यु होती है उसे उसी समय वहाँ से हटा दिया जाता है। क्षपक के साथ कुछ मुनि के उपकरण भी रखे जाते हैं। अगर भक्तप्रत्याख्यान लेनेवाली कोई आर्यिका या कोई गृहस्था हो तो उसके लिए शिविका बनायी जाती है और उस शिविका में उसके शव को रखकर संस्तर के साथ उसे बाँध दिया जाता है। समय आदि का ध्यान करके क्षपक के शव के साथ पुतला भी रखा जाता है। जिस दिन क्षपक की मृत्यु होती है उस दिन संघ के समस्त सदस्यों को उपवास होता है। श्वेताम्बर परम्परा में भी यह मान्यता है ?२१४ अन्त में क्षपक की स्तुति कर ऐसा विचार किया जाता है कि वे धन्य हैं जिन्होंने भक्तप्रत्याख्यानमरण को पूर्ण किया और जो प्राप्त करने योग्य था उसे उन्होंने प्राप्त कर लिया अर्थात् उन्होंने सभी कुछ प्राप्त कर लिया है । २१५ इस तरह से सविचार भक्तप्रत्याख्यानमरण का विवेचन चालीस अधिकार - सूत्रों की सहायता से यहाँ प्रस्तुत किया गया।
अविचार भक्तप्रत्याख्यान
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अनायासमरण उपस्थित हो जाने पर व्यक्ति अविचार भक्तप्रत्याख्यानमरण करता हैभगवती आराधना में कहा गया है२१६- सर्प, आग, व्याघ्र, भैंसा, हाथी, रीछ, शत्रु, चोर,
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