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________________ समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप १०१ को सरलता से माया को और भोगों की निस्पृहता से निदान को दूर करके निःशल्य बनो। व्याधि, उपसर्ग, परीषह, असंयम, मिथ्याज्ञान, आदि विपदाओं का प्रतिकार करके वैयावृत्य करनेवाले वसति, संस्तर, पिच्छी आदि का शोधन करके सल्लेखना करो। (३४) स्मरण - दुःख से पीड़ित होकर बेहोश हुए चेतनारहित आराधक को सचेत करना स्मरण है। वेदना, परीषह, उपसर्ग आदि से व्याकुल होकर क्षपक अपने वश में नहीं रहे तो आचार्य को क्षपक को समझाते हुए यह कहना चाहिए - हे ! सुन्दर आचारवाले। तुम दीनता और मूढ़ता का त्याग करो। चारित्र में बाधाडालने वाली छोटी या बड़ी व्याधियों से उत्पन्न असह्य वेदना को धैर्य से जीतो । राग और द्वेष का त्याग करो. यही शुद्ध चारित्र के लक्षण हैं। व्याधि को दूर करने के उपायों में आदर करनेवाले तथा व्याधि और वेदना से द्वेष करनेवाले का चारित्र नष्ट होता है। अतः चारित्र की शुद्धता के लिए इन विघ्नों को तुम्हें चेतना जगा कर जीतना चाहिए। (३५) कवच - दुःख दूर करने का गुण कवच है । वेदना, परीषहों को जीतकर क्षपक को ऐसा विचार करना चाहिए कि हमें जो दुःख हो रहा है वह पूर्व में किए गए कर्मों के कारण है और यही दुःख हमें समस्त कर्मों से मुक्ति दिलाएगा। अब इस समय के दुःख को कर्ज के समान समझकर उतारना अर्थात् ऋण मुक्त होना चाहिए और इससे अगर किसी प्रकार की वेदना होती है तो उससे दुःखी नहीं होना चाहिए । २०६ o (३६) समता समत्व भाव को अपनाना ही समता (समदा) है। कवच से उपगृहित होकर क्षपक इष्ट, अनिष्ट, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, इहलोक, परलोक, जीवनमरण, मान-अपमान से मुक्त तथा राग-द्वेष से रहित हो जाता है। २०७ वह उपर्युक्त समस्त परिस्थितियों में समता का भाव बनाए रखता है और इस तरह से अपने चित्त को निर्मल बनाता है, क्योंकि क्षपक यह जानता है कि राग- ग-द्वेष सम्यक् रत्नत्रय को नष्ट कर देते हैं और इससे भक्तप्रत्याख्यान करने में दोष आ जाता है। - Jain Education International (३७) ध्यान - उत्तम संहननवाले के एकाग्र चिन्ता निरोध को ध्यान कहा जाता ( है । २८ चिन्ता निरोध में निरोध शब्द का अर्थ रोकना है। ध्यान की सहायता से क्षपक कषायों का नाश करता है, क्योंकि कषायों के संहार (नाश) करने में ध्यान आयुध का कार्य करता है। ध्यान द्वारा समस्त कषायों का नाश करके क्षपक भक्तप्रत्याख्यान करने को तत्पर रहता है और जब वह बोलने में असमर्थ हो जाता है तब अपनी बातों को वह इशारे से बताता है, जैसे हाथों की अंजुलि बनाकर, भौं में गति देकर मुठी बनाकर या सिर हिलाकर आदि । इससे आचार्य को यह ज्ञात हो जाता है कि क्षपक अपनी समाधिमरण की प्रक्रिया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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