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________________ 'T समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप ९९ अपने पापों के गुण-दोष आदि गुरु से कहने पर गुरु उससे बचने के उपाय बताते हैं । १९२ (२५) शय्या ( वसति) आराधक के रहने का स्थान शय्या कहलाता है। गायनशाला, नृत्यशाला, गजशाला, कुम्भकारशाला, यंत्रशाला, धोबी, बाजा बजानेवाले डोम, नट, राजमार्ग के समीप का स्थान, पत्थरों के काम करनेवालों का स्थान, पुष्पवाटिका, मालाकार का स्थान, जलाशय के समीप का स्थान क्षपक के रहने योग्य नहीं है, क्योंकि इन स्थानों पर होनेवाले कार्यों तथा हो हल्ले से ध्यान-साधना में विघ्न उत्पन्न होता है । १९३ - क्षपक को ऐसी वसति में रहना चाहिए जहाँ मन को क्षोभ पैदा करनेवाले पाँचों इन्द्रियों के विषयों का गमन सम्भव नहीं हो। ऐसे स्थान हैं १९४ - मजबूत दीवारों एवं कपाटों से युक्त घर, गाँव के बाहर वह प्रदेश जहाँ बच्चे, बड़े-बूढ़े आदि सभी आ सकते हों, गुफा में, उद्यानघर में अथवा किसी तरह के शून्यघर में रहना चाहिए। क्षपक जिस स्थान पर निवास करता हो वह तीन भागों में बँटा होना चाहिए : १. क्षपक का रहने का स्थान २. निर्यापक एवं सेवा करनेवाले मुनियों का स्थान तथा ३. धार्मिकजनों द्वारा धार्मिक प्रवचन कहने अथवा सुनने का स्थान । (२६) संस्तर - क्षपक आराधना के लिए जिस पर बैठता है उसे संस्तर कहते हैं।१९५ क्षपक समाधि के निमित्त ऐसे संस्तर पर बैठता है जो जीव-जन्तु से रहित, बहुत छोटा और न बहुत बड़ा हो, दोनों समय अर्थात् सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय प्रतिलेखना द्वारा शुद्ध किया गया हो और शास्त्र में निर्दिष्ट क्रम के अनुसार बनाया गया हो जिस पर लेटने से सिर उत्तर दिशा अथवा पूर्व दिशा की ओर रहे। पूर्व दिशा में सूर्य के उदित होने बहुधा मांगलिक कार्यों के लिए पूर्व दिशा अच्छी मानी जाती है। तीर्थंकरों के प्रति भक्ति प्रदर्शित करने के उद्देश्य से उत्तर दिशा भी शुभ मानी जाती है, क्योंकि इसी दिशा में तीर्थंकर स्थित होते हैं। से (२७) निर्यापक - आराधक के समाधिमरण में सहायक मुनि या आचार्य १९६ जिन्हें धर्म प्रिय है, धर्म में स्थिर रहते हों, संसार को अनित्य समझकर उससे डरते हों, पापाचरण से डरते हों, धैर्यवान हों, जीवन के अभिप्राय को जानते हों, प्रत्याख्यान के क्रम को जानते हों तथा विश्वास करने योग्य हों, ऐसे ही व्यक्ति निर्यापक होते हैं, १९७ क्योंकि यदि व्यक्ति (आचार्य) इन समस्त गुणों से युक्त नहीं होंगे तो क्षपक को समाधिमरण के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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