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समाधिमरण
लेकर उसके संघ में आना चाहता है, तो आचार्य अपने संघ के समस्त सदस्यों से पूछते हैं कि यह क्षपक हमारे संघ में आना चाहता है और यहाँ हमारी सहायता से समाधिमरण लेना चाहता है। यदि सभी सदस्य इसके लिए अपनी सहमति प्रदान कर देते हैं तो आचार्य क्षपक को स्वीकार कर लेते हैं। आचार्य अपने संघ के सदस्यों से क्षपक को स्वीकार करने के लिए नहीं पूछें तो आचार्य, क्षपक और संघ तीनों को ही क्लेश होता है । हम लोगों ने इस क्षपक को स्वीकार नहीं किया है, ऐसा मानकर संघ के सदस्य उसकी विनय या वैयावृत्य (सेवा) नहीं करे तो क्षपक को क्लेश होता है कि ये मेरी कुछ भी सहायता नहीं करते हैं। गुरु को क्लेश होता है कि मैनें इसका उपकार करना प्रारम्भ किया, किन्तु संघ के सदस्य इसमें सहायता नहीं करते हैं। संघ के सदस्यों को भी क्लेश होता है कि यह कार्य बहुत लोगों के द्वारा होनेवाला है, किन्तु गुरु यह नहीं जानते और न ही हमारे बलाबल की परीक्षा करते हैं।
(२२) प्रतिक्षण - एक आचार्य द्वारा एक समय में एक ही क्षपक को समाधिमरण कराना प्रतिक्षण (पडिच्छणा) है। १८८ संघ की अनुमति मिल जाने पर आचार्य एक ही क्षपक को समाधिमरण कराने के लिए स्वीकार करते हैं। ऐसा इसलिए कि एक आचार्य की देखरेख में एक साथ एक या दो मुनि ही सल्लेखना कर सकते हैं, क्योंकि तपरूपी अग्नि की ज्वाला में अपने शरीर की आहुति देनेवाले मुनि की समाधि में विघ्न आता है। इसका .कारण यह है कि यदि दो या तीन क्षपक संस्तर पर पड़ जाये तो चित्त को शान्त करनेवाली विनय वैयावृत्य आदि में कमी आ जाती है।
(२३) आलोचना १९ क्षपक द्वारा गुरु के समक्ष अपने समस्त दोषों को प्रकट करना आलोचना है। १८९ क्षपक गुरु से अपने समस्त प्रकार के दोषों को कहता है। इस दिन से लेकर अमुक काल में अमुक देश में, अमुक भाव से जो दोष जिसके साथ जिस प्रकार से किया हो वह सब कहना चाहिए। देश-भेद, काल-भेद, परिणाम-भेद और सहायकभेद से दोषों में कमी और आधिक्य होता है । दोषों की गुरुता और लघुता-भेद के अनुसार ही आचार्य उसके लघु अथवा गुरु प्रायश्चित का विधान बताते हैं ।
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(२४) गुणदोष - व्यक्ति की अच्छाइयाँ उसके गुण और बुराइयों उसके दोष कहताते हैं। आलोचना के अन्तर्गत व्यक्ति अपने गुणदोष को ही कहता है । व्यक्ति अपने अपराध के गुणदोष की आलोचना गुरु के समक्ष करके हल्का अनुभव करने लगता है। कहा भी गया है कि बहुत बड़े विद्वान् और ज्ञानी मनुष्य भी क्षमा आदि धर्म में, संयम में ज्ञान-दर्शन-तप आदि में भावशुद्धि नहीं रखते हैं तो वे दुःख से पीड़ित होते हैं । ९९ अर्थात् अपने द्वारा किए गये अपराधों की आलोचना नहीं करने पर उन्हें दुःख होता है, क्योंकि
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