SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप क्षपक की बुद्धि जाग्रत हो जाती है । १७७ (१७) सुस्थित - पर का उपकार करने में तथा अपने प्रयोजन में सम्यक् रूप से स्थित आचार्य को सुस्थित (सुट्ठिय) कहते हैं । १७८ आचार्य क्षपक को मोक्षप्राप्ति करनेवाली आराधनाओं को अपनी मधुर वाणी से सुनाते हैं तथा उसे संयमपूर्वक समस्त परीषहों को सहन करने का उपदेश देते हैं। इस तरह वे पर उपकार का कार्य करते हैं । १७९ ऐसा करने से आचार्य की कीर्ति भी होती है और अपना भी उपकार करते है । १८० ९७ (१८) उपसम्पदा आचार्य के पास जाने को उपसम्पदा कहते हैं । १८५ ज्ञान और चारित्र से युक्त क्षपक उपयुक्त आचार्य को खोजकर उनके पास जाता है१८२ और कहता है- दीक्षा ग्रहण करने से लेकर आज तक मैंने जो दोष किये हों, उन दोषों को दूर करके उनकी आलोचना करके मैं दर्शन, ज्ञान और चारित्र को शल्य - मुक्त करके उसका पालन करना चाहता हूँ। ८ १८३ (१९) परीक्षा गण, परिचारक, आहार की अभिलाषा छोड़ने में आराधक समर्थ है या नहीं, इसकी जानकारी करना परीक्षा है । १८४ आचार्य क्षपक को रत्नत्रय की आराधना करने में कितना उत्साह है इसकी परीक्षा करते हैं। इसके अलावा आहार से सम्बन्धित क्षपक की लोलुपता की भी परीक्षा करते हैं और यह देखते हैं कि वह आहार की तरफ अधिक झुकाव तो नहीं रखता है। यह परीक्षा समाधि के निमित्त की जाती है । १८५ (२०) प्रतिलेखना स्थान विशेष का अन्वेषण करना प्रतिलेखना है। क्षपक की परीक्षा के बाद आचार्य राज्य, क्षेत्र आदि के अच्छे-बुरे की परीक्षा करते हैं। यदि राज्य आदि को अशुभ देखते हैं तो क्षपक को अन्य राज्य या अन्य क्षेत्र में लेकर चले जाते हैं। ऐसा करके क्षपक के साथसाथ स्वयं पर भी उपकार करते हैं, क्योंकि यदि अन्वेषण नहीं करते हैं और राज्य में किसी तरह का उत्पात होता है तो क्षपक और आचार्य दोनों को ही कष्ट होता है । १८६ Jain Education International (२१) आपृच्छा "जब कोई आराधक समाधिमरण के लिए किसी संघ में आए तो आचार्य का संघ से पूछना कि हम इसे स्वीकार करें या नहीं, आपृच्छा है । १८७ जब क्षपक आचार्य से आज्ञा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy