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समाधिमरण और अशुचि से युक्त है। अत: यह सार रहित है। इसलिए व्यक्ति को अपना आवश्यक कर्म करते हुए संयमपूर्वक तप करना चाहिए, क्योंकि बिना संयम के मात्र तप से मुक्ति सम्भव नहीं है।१७०
(१५) परगणचर्या - दूसरे संघ में जाने को परगणचर्या कहते हैं।१७१ आज्ञाकोप, कठोर वचन, कलह, दुःख, निर्भयता, स्नेह, ध्यान में विध्न और असमाधि आदि दोषों को दूर करने के लिए व्यक्ति दूसरे संघ में जाता है।१७२ । ___ . आज्ञाकोप - अपने संघ में रहने पर किसी को आज्ञा दे और वह नहीं माने तो इससे मन में क्रोध का भाव तथा परिणाम में अशुद्धि आ जाती है।१७३
कठोर वचन - किसी व्यक्ति को उसके हित की बात कहें और वह नहीं माने तो इससे कलह पैदा हो जाती है।
दुःख - किसी के दोषपूर्ण आचरण को देखकर मन में दुःख (सन्ताप) पैदा हो जाता है।
निर्भयता - किसी का भय नहीं रहने के कारण अयोग्य आचरण का व्यवहार करना निर्भयता है।
स्नेह - मृत्यु के समय परिचित व्यक्तियों से प्रेम होने के कारण स्नेह का भाव पैदा हो सकता है।
करुणा - किसी को दु:खी देखकर मन में उसके प्रति जो भाव आता है वह करुणा है। ध्यान में इन सभी बातों के कारण बाधा पड़ सकती है और समाधि ठीक से नहीं हो पाती है। (१६) मार्गणा
समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्य को खोजने को मार्गणा कहते हैं।१७४ भक्तप्रत्याख्यान करनेवाला व्यक्ति शास्त्रसम्मत निर्यापक (समाधिमरण करानेवाला) व्यक्ति की खोज में निकल पड़ता है। इस कार्य के लिए उसे बहुत समय तक एवं बहुत दूर की यात्रा भी करनी होती है।१७५ शास्त्रसम्मत ये आचार्य कषाय से रहित होने के कारण व्यक्ति के चित्त को शान्ति प्रदान करते हैं।१७६ भक्तप्रत्याख्यान करनेवाले व्यक्ति को अपने प्रिय वचनों से मन और कानों को सुख देनेवाली कथा कहते हैं। इससे क्षपक (भक्त प्रत्याख्यान करनेवाला व्यक्ति) पहले अभ्यास किए हुए श्रुत के अर्थ का स्मरण कर लेता है, अर्थात्
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