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________________ समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप ९५ (१०) भावना इसका अर्थ अभ्यास होता है अर्थात् बार-बार एक ही चीज में प्रवृत्ति करना । १६० भक्तप्रत्याख्यान करनेवाला व्यक्ति अभी तक जो संयमित आचरण करता आया है उसका बार-बार मनन एवं अभ्यास करता है। सतत् अभ्यास करने से व्यक्ति का श्रुतज्ञान निर्मल और प्रबल हो जाता है। प्रबल अभ्यास के बल से स्मृति बिना खेद के अपना काम करती है। तात्पर्य है कि योग यानी वचन और काय के व्यापार का मूल स्मृति है । १६१ (११) संलेखना नानाप्रकार के बाह्य और आभ्यन्तर तप के द्वारा व्यक्ति अपने काय और कषाय को कृश करते हुए बाह्य और आभ्यन्तर सल्लेखना करता है। १६२ इस प्रकार आभ्यन्तर सल्लेखना सहित बाह्य सल्लेखना करने से व्यक्ति के मन में संसार त्याग करने का निश्चय दृढ़ होता है । १६३ (१२) दिशा आचार्यों द्वारा मोक्ष का जो उपदेश दिया जाता है वह दिशा कहलाता है। १६४ जब आचार्य किसी नए व्यक्ति को अपने संघ का आचार्य नियुक्त करते हैं, तो संघ के समस्त सदस्यों को यह निर्देश देते हैं कि आप सब लोगों को इसके अनुसार दिखाए मार्ग पर चलना चाहिए तथा नए आचार्य को भी ऐसा समझाते हैं कि आपको समस्त संघ की देख-रेख ठीक ढंग से करनी चाहिए । १६५ - (१३) क्षमण - क्षमाग्रहण करने को क्षमण कहते हैं । १६६ नए नियुक्त आचार्य से एवं संघ के समस्त सदस्यों से पुराने आचार्य मन-वचन-काय से क्षमा मांगते हुए कहते हैं- दीर्घकाल तक साथ रहने से उत्पन्न हुए ममता, स्नेह, द्वेष और राग से जो कटु और कठोर वचन मैंने आप सबों को कहा हो उनके लिए मैं आप सभी लोगों से क्षमा चाहता हूँ। १६७ (१४) अणुशिष्टि - शास्त्रानुसार शिक्षा देने को अणुशिष्टि कहते हैं । १६८ पुराने आचार्य नए आचार्य को तथा संघ के सदस्यों को शास्त्रानुसार उपदेश देते हुए कहते हैंज्ञान-दर्शन-चारित्र के अतिचारों को दूर करो, यथा क्षेत्र-शुद्धि, द्रव्य-शुद्धि, भाव-शुद्धि के बिना वाचना आदि करना, निह्नव, ग्रन्थ और अर्थ की अशुद्धि, आदर का अभाव आदि ज्ञानविषयक अतिचारो शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि प्रशंसा आदि सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं तथा समिति की भावना का न होना आदि चारित्र के अतिचार हैं। आचार्य इनसे बचने का उपदेश देते हैं । १६९ इसके अलावा धार्मिकों तथा मिथ्यादृष्टियों के साथ विरोध नहीं करने का भी निर्देश देते हैं । चित्त की शान्ति दूर करनेवाले वाद-विवाद एवं क्रोधादि कषायों से श्री बचने का निर्देश देते हैं। संघ को शिक्षा देते हुए कहते हैं कि मानव जीवन अनित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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