________________
समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप
९३
है । १३५ निकाचित अर्थात् अर्थ से पूर्ण होता है । १३६ अनुत्तर अर्थात् जिससे कोई श्रेष्ठ न हो । १३७ सभी प्राणियों के लिए हितकारी होता है१३८ तथा ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म और अज्ञानादि भाव फल का विनाश करने से जिनवचन पाप को हरनेवाला होता है । १३९
(४) विनय- इसका अर्थ होता है- मर्यादा १४ । आठ प्रकार के अशुभ कर्मों को विनय के द्वारा दूर किया जाता है। इसके आठ द्वार हैं- काल, विनय, उपधान, बहुमानी निह्नव, व्यंजनशुद्धि, अर्थशुद्धि, उभयशुद्धि आदि । १४१
काल- स्वाध्यायकाल काल के रूप में मान्य है । इसी अवधि में स्वाध्याय करना फलप्रद माना जाता है। संध्या, पर्व, किसी दिशा में आग लगना, उल्कापात आदि जो काल छोड़ने योग्य कहे गए हैं। उन कालों को छोड़कर किया गया अध्ययन कर्म को नष्ट करता है।
१४२
विनय
श्रुत और श्रुत के धारकों की भक्ति विनय है । १४३
उपधान- उपधान का अर्थ अवग्रह है। जबतक आगम का यह अनुयोगद्वार समाप्त नहीं होता, तब तक मैं अमुक वस्तु नहीं खाऊँगा का संकल्प करना । १४४
बहुमान - बहुमान का अर्थ सम्मान है। पवित्र होकर दोनों हाथ जोड़कर और मन को निश्चल करके सादर भाव से अध्ययन करना बहुमान है । १४५ अध्ययन के पूर्व किया गया यह कर्म अध्ययन के प्रति सम्मान भाव का द्योतक माना जाता है।
निह्नव- निह्नव अपलाप को कहते हैं। किसी के पास अध्ययन करके अन्य को गुरु कहना अपलाप है, १४६ अर्थात् गुरु के उपकार को नहीं मानना ।
व्यंजनशुद्धि- व्यंजन शब्द के प्रकाशन को कहते हैं, शब्द के वाच्य को अर्थ कहते हैं। व्यंजन (शब्द) स्वयं दूसरों को ज्ञान कराने का साधन है। शब्द श्रुतरूप भी हो सकता है, क्योंकि श्रुत भी ज्ञान कराने का हेतु माना जाता है। गणधर आदि ने दोषों से रहित सूत्र रचे हैं, उनका वैसा ही पाठ व्यंजनशुद्धि है, अत: दूसरे के द्वारा किया गया शब्द श्रुतका अविपरीत पाठ व्यंजनशुद्धि है । १४७
अर्थात्
अर्थशुद्धि - व्यंजनशुद्धि के अर्थ का अविपरीत निरूपण अर्थशुद्धि है, १४८. के अर्थ का यथार्थ कथन अर्थशुद्धि है।
सूत्र
तदुभय शुद्धि- व्यजंनशुद्धि और अर्थशुद्धि होने से जो शुद्धि होती है, वह तदुभय शुद्धि कहलाती है। १४९ इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि कोई व्यक्ति सूत्र का अर्थ तो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org