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समाधिमरण
स्त्री और पुरुष दोनों ही भक्तप्रत्याख्यान ले सकते हैं। जो पुरुष भक्तप्रत्याख्यान करना चाहता है उसे औत्सर्गिक लिंग धारण करना होता है। १३० इस लिंग को धारण करने पर नग्न रहना पड़ता है । परन्तु इसके सम्बन्ध में यह नियम है कि उसकी पुरुष जननेन्द्रिय (पुरुष चिह्न) प्रशस्त होनी चाहिए। पुरुष जननेन्द्रिय का चर्मरहित होना, अतिदीर्घ होना, स्थूल होना और बार-बार उत्तेजित होना आदि दोष हैं। इन दोषों से रहित होने पर ही औत्सर्गिक लिंग दिया जाता है। पुरुष जननेन्द्रिय में अण्डकोष भी सम्मिलित है। वे भी अति लटकते हुए लम्बे नहीं होने चाहिए। इसके अलावा जो प्रतिष्ठित धनसम्पन्न हैं या जिन्हें सबके सामने नग्न होने में लज्जा आती है ऐसे व्यक्तियों को सार्वजनिक स्थान में नग्न लिंग नहीं देना चाहिए । उनके लिए वस्त्र लिंग (आपवादिक लिंग) ही योग्य होता है । १३१
उपर्युक्त व्यवस्था दिगम्बर एवं यापनीय परम्पराओं के सन्दर्भ में है । जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें आचारांगसूत्र में यह चर्चा तो हमें उपलब्ध होती है कि मुनि भी वस्त्र आदि को अल्प करता हुआ अचेत अवस्था तक जा सकता है, किन्तु सल्लेखना के समय उसमें वस्त्र की स्थिति वही होती है जिसमें वह सल्लेखना ग्रहण करने
पूर्व रहता है। इस प्रकार हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में वस्त्र त्याग करना मुनि और गृहस्थ दोनों के लिए अपरिहार्य नहीं था। सल्लेखना सम्बन्धी जितने भी सन्दर्भ श्वेताम्बर ग्रन्थों में उपलब्ध है। उनमें कहीं भी ऐसा निर्देश उपलब्ध नहीं होता है कि सल्लेखना के समय वस्त्र त्याग करना चाहिए, वहाँ कषाय और आहार को ही अल्प करने का निर्देश मिलता है।
जो स्त्रियाँ भक्तप्रत्याख्यान करना चाहती है उनमें से तपस्विनी स्त्रियों (साध्वियों ) को औत्सर्गिक लिंग दिया जाता है तथा श्राविकाओं को आपवादिक लिंग । तपस्विनी स्त्रियाँ एक साड़ी मात्र परिग्रह रखती हैं और मृत्यु के समय उस वस्त्र का भी परित्याग कर देती हैं। गृहस्थ स्त्रियाँ भी यदि योग्य स्थान होता है तो वस्त्र त्याग करती हैं। यदि वे धनसम्पन्न तथा अच्छे कुल की होती हैं तो सार्वजनिक स्थान पर वस्त्र त्याग नहीं करती है। लेकिन परिग्रह, अल्प कर देने से स्त्रियों को औत्सर्गिक लिंग / धारक माना जा सकता
है।
नय
(३) शिक्षा - इसका अर्थ होता है श्रुत का अध्ययन करना । व्यक्ति को जिनवचन रात-दिन पढ़ना चाहिए। क्योंकि इसकी सहायता से व्यक्ति जीवादि पदार्थों का प्रमाण और के अनुसार निरूपण करने में निपुण होता है। १३३ पूर्वापर विरोध पुनरुक्तता आदि बत्तीस दोषों से मुक्त होने के कारण शुद्ध होता है। १३४ विपुल यानी निक्षेप, निरूक्ति अनुयोगद्वार और नय इन अनेक विकल्पों से जीवादि पदार्थों का विस्तार से निरूपण करता
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