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८६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
परम आदर्श की दिशा में अधिकाधिक अग्रसर होता चला जाता है । यहाँ तीर्थंकरों की अनाज्ञा में उद्यमी और आज्ञा में अनद्यमी, ऐसे दोनों प्रकार के साधकों की स्थिति का चित्र खींचते हुए आचारांग में कहा गया है कि कुछ लोग तीर्थंकर की आज्ञा के विरुद्ध अपनी स्वच्छन्द बुद्धि से कुमार्ग या कल्पित अनाचार का सेवन करते हैं । वे धर्माचरण की तरह प्रतीत होने वाले अपने मनमाने सावद्य (अनैतिक) आचरण में उद्यत रहते हैं और कुछेक साधक अर्हत्-आज्ञा में निरुद्यमी होते हैं । समुचित रूप से उनके परिपालन में पुरुषार्थं नहीं करते । वे आज्ञा के महत्त्व, प्रयोजन, लाभ से अभिज्ञ होते हैं, फिर भी अपनी जड़ता, आलस्य, प्रमादादि के कारण वीतराग निर्दिष्ट धर्माचरण के प्रति उद्यमवान नहीं होते । कुमार्ग ( अनाज्ञा ) में पुरुषार्थ और सन्मार्ग (आज्ञा ) में प्रमाद, ये दोनों ही दोष साधक के जीवन में न हों, ऐसा तीर्थंकर का आदेश है । उनका आदेश है कि साधक या शिष्य को तीर्थंकर एवं उनके शासन के संचालक आचार्य की आज्ञानुसार प्रत्येक कार्य (साधना) करना चाहिए । उनकी निर्लोभ वृत्ति के अनुरूप धर्माचरण करना चाहिए । उन्हीं की भांति सदा ज्ञान-साधना में लीन रहना चाहिए । उन्हीं के सान्निध्य में रहकर उन्हीं का अनुसरण करना चाहिए । २२
इस प्रकार आचारांग में साधक के लिए आज्ञा को विशेष महत्त्व दिया गया है, क्योंकि आगमों में 'विणय धम्मो मूलो' अर्थात् विनय को धर्म का मूल कहा गया है । विनय के अभाव में जीवन में धर्म का उदय नहीं हो सकता । विनय की आराधना आज्ञा में है, इसीलिए आज्ञा-पालन में ही धर्म माना गया है और उसे ही नैतिकता और अनैतिकता का प्रमापक स्वीकार किया गया है ।
तीर्थंकर प्रणीत धर्म, द्वीप तुल्य होने से सभी जीवों का आश्वासन स्थान अर्थात् रक्षक है । आचारांग में इसे एक सुन्दर रूपक के द्वारा समझाया गया है । जिस प्रकार जल में आप्लावित असंदीन द्वीप यात्रियों के लिए आश्वासन स्थान ( आश्रयभूत) होता है, उसी प्रकार तीर्थंकर उपदिष्ट धर्म, संसार सागर पार करने वालों के लिए आश्वासन - स्थान होता है । इस प्रकार आज्ञा परायण साधक अपने नैतिक परम साध्य को सुगमतया पा लेने में समर्थ होता है । इसके विपरीत, विवेकशून्य, मोह से आवृत, कई साधक परीषहों के उपस्थित होने पर आज्ञा-विरुद्ध आचरण करके अपने संयम-पथ (नैतिक - साधना) से च्युत हो जाते हैं । २४ धर्म से पतित साधकों की स्थिति 'इतो भ्रष्टस्ततो नष्ट:' सी हो जाती
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