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________________ नैतिक प्रमाद और आचारांग : ८५ अर्थात वैदिक प्रवर्तक वाक्य ही धर्म का लक्षण है। आचारांग में धार्मिक विधानवाद स्वीकृत है । जिनाज्ञाओं का पालन सत् आचार है और उनके द्वारा निषिद्ध कर्म असत् आचार है। आचारांग में स्पष्ट कहा गया है कि 'आणाए मामगं धम्म एस उत्तरवादे इह माणवाणां वियाहिते'१४ । अर्थात् मनुष्य के लिए मेरी आज्ञाओं में ही धर्म है। इस प्रकार जिन आज्ञाओं का सम्यक् रूप में अनुपालन करने का विधान है। 'जिन' वचनों का परिपालन नैतिक जीवन का अनिवार्य अंग है । जैनागमों में साधक के लिए जो विधि-विधान या आचार निश्चित किए गए हैं, यदि उनका पालन नहीं किया जाता है, तो आचारांग के अनुसार वह कर्म, अनैतिकता की कोटि में आता है। आज्ञा पालन की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा है कि जिन-प्रमाणित (सत्य) आगमोक्त आज्ञा को भली-भांति समझकर जो साधक उसी के अनुरूप आचरण करते हैं, वे ही बुद्धिमान, संसार-सागर से पार होते हैं । जो साधक, वीतराग आज्ञा का पालन नहीं करता, वह चारित्र-शून्य होता है, दुर्वसु होता है अर्थात् मुक्ति पाने के योग्य नहीं होता और इसीलिए वह शुद्ध धर्म-मार्ग का प्ररूपण करने में ग्लानि (लज्जा -भय) का अनुभव करता है । अहंत् शासन में जिनाज्ञा की आराधना ही संयम (धर्म) की आराधना मानी गई है। आज्ञा और धर्म ( नैतिकता) का सह-अस्तित्व बताया गया है। आज्ञा ही धर्म है । आज्ञा-विरुद्ध आचरण करने का अर्थ है-नैतिकता के विरुद्ध आचरण करना। ___ अतः यह कहा जाता है कि अर्हत् आदेशानुसार प्रवर्तन करने वाला वह वीर साधक ही प्रशंसित होता है और धर्माचरण करता हआ लोक संयोग से पर हो जाता है ।१७ जिन वचनानुसार आचरण करने वाला श्रद्धावान् साधक लोक के स्वरूप को जानकर अकुतोभय हो जाता है अर्थात् वह किसी भी प्राणी को भय उत्पन्न हो, वैसा व्यवहार नहीं करता, और ऐसा सद्व्यवहार ही धर्म है, तथा यही हमारे कर्मों के नैतिक मूल्यांकन की कसौटी है। इस अर्हत् प्रवचन में भगवदाज्ञा का आकांक्षी साधक, राग-द्वेष रूप स्निग्धता से विलग होकर अपना निरीक्षण करते हुए शरीर को सुखा लेता है ।१९ आचारांग में आगमोक्त विधानों के अनुसार प्रवृत्ति करने की प्रेरणा दी गई है । कहा गया है कि आज्ञापालक साधक, धर्म या नैतिक कर्मों के अवलम्बन से श्रेय का साक्षाल्कार कर लेता है ।२० प्रबुद्ध साधक तीर्थंकर के आदेशों (निर्देशों) का अतिक्रमण न करे२१ । विशुद्ध नैतिक जीवन की प्राप्ति के लिए धर्माज्ञाओं का पालन आवश्यक है। आज्ञाओं के पालन के परिणामस्वरूप साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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