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८४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन घामिक विधानवाद :
धार्मिक विधानवाद के अनुसार शास्त्र या धर्मग्रन्थ ईश्वरीय वचन हैं, जिसमें सभी मनुष्यों के लिए विधि-निषेधमूलक कर्तव्य निर्धारित होते हैं । आप्त पुरुषों का आदेश, या ईश्वरीय नियमों का पालन कर्मों के औचित्यअनौचित्य का निर्धारण करता है। पश्चिमी विचारक देकार्त, लॉक आदि भी मानते हैं कि ईश्वरीय नियम ही नैतिकता की अन्तिम कसौटी हैं । ईश्वर की निरपेक्ष इच्छा ही नैतिक प्रमापक है। लॉक तो कहता है कि नैतिकता का वास्तविक आधार ईश्वरीय इच्छा और नियम ही हो सकता है।
भारतीय परम्परा में भी धार्मिक या ईश्वरीय विधानवाद नैतिक मापक रूप में मान्य है। मनु ने कहा है कि वेदविहित ईश्वरीय नियम ही सर्वोच्च मानदण्ड है। समाज में प्रचलित नैतिकता अगर ऐसे विधिनिषेधों के प्रतिकूल है तो मनु उसे आदर्श स्वरूप नहीं मानते । महाभारत भी ईश्वरीय नियम को प्रकट करने वाले वेद-स्मृति को नैतिकता का प्रमाण मानता है। पुराण भी इस प्रमापक के समर्थक हैं कि वेद और स्मृतियों में जिस ईश्वरीय नियम का आदेश है, वही नैतिक मानक है, वही धर्म है। रामायण भी वेदाज्ञाओं को नैतिक मानदण्ड के रूप में प्रमाण मानती है ।१० चार्वाकदर्शन के अनुसार राजा को ईश्वर तुल्य माना गया है। अतः उसके द्वारा आदिष्ट कर्तव्य या नियम नैतिक मानदण्ड हैं।
गीता, शास्त्र को कर्मों के नैतिक मूल्यांकन की कसौटी स्वीकार करती है । गीताकार का मत है कि जो शास्त्रीय विधान की उपेक्षा करके अपनी इच्छानुसार आचरण करता है, उसे शाश्वत सुख, सफलता और परमगति प्राप्त नहीं हो सकती। अतः कतव्या-कर्त्तव्य के निर्णय के लिए शास्त्रों को प्रमाण मानना चाहिए । शास्त्रोक्त विधान को जानकर कर्म करना चाहिए ।१२ बौद्ध और जैन धर्म, न तो ईश्वर में विश्वास करते हैं और न ही वेदों में । फिर भी बौद्ध 'बुद्ध' को और जैन 'जिन' को आप्तपुरुष मानते हैं और उनके वचनों या आगमोक्त विधान को नैतिकता का मानदण्ड मानते हैं। बौद्ध परम्परा3 में भी बुद्ध द्वारा उपदिष्ट आदेशों को नैतिक जीवन का प्रमापक माना गया है । जैन परम्परा में 'जिन' के आदेश को नैतिक मूल्यांकन की कसौटी माना गया है । परवर्ती जैन सूत्रों में 'आणाए धम्मो' कहकर इसे स्पष्ट किया गया है । मीमांसा दर्शन में भी कहा गया है कि 'चोदना लक्षणोऽअर्थो धर्मः'
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