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________________ नैतिक प्रमाद और आचारांग : ८३ गया है । गीता का कथन है कि 'सज्जन जैसा आचरण करते हैं, अन्य सामान्य लोग भी वैसा ही करते हैं, जिसे सज्जन पुरुष-प्रमाणित मानता है उसोका लोग अनुसरण करते हैं। मनु भी शाश्वत आचार को नैतिक मानता है। शाश्वत आचार मे तात्पर्य है -समाज में पोढ़ियों से चले आने वाला भले पुरुषों का अच्छा आचरण या व्यवहार । जो समाज में प्रचलित नैतिकता का आचरण करता है, वह दीर्घायु होता है और सुख पाता है, तथा जो उसका उल्लंघन करता है, उसकी निन्दा करता है और वह दुःख को प्राप्त होता है। इस तरह मनुस्मृति में सामाजिक नियम को नैतिक प्रमापक माना गया है । महाभारत (शान्तिपर्व) में भी परम्परागत सत्पुरुषों का आचार नैतिक प्रतिमान के रूप में स्वीकृत है। आचारांग में इन सामाजिक नैतिक नियमों को कोई स्थान प्राप्त नहीं है। हाँ, परवर्ती जैन आचार-दर्शन में व्यावहारिक दृष्टि से इन्हें कुछ मान्यता मिली है, फिर भी इन्हें नैतिकता का अन्तिम प्रतिमान नहीं माना जा सकता। (३) वैधानिक विधानवाद : __इस सिद्धान्त के अनुसार राजनैतिक नियमों को नैतिक जोवन के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है। राज्य, नियमों का निर्माण करता है। राजसत्ता के नियमों को नैतिक आत्मा संचालित नहीं करती है, अपितु पुरस्कार को भावना और दण्ड का भय आदि बाह्य प्रतिबन्ध परिचालित करते हैं । उनसे भयभीत होकर मनुष्य कर्म करने के लिए बाध्य होता है । उसके आचरण को बागडोर वैधानिक नियमों या प्रचलनों के हाथ में है । बिना समझे-बझे बाह्य नियमों का पालन करने वाला व्यक्ति 'यह करना उचित है' अथवा' यह करना चाहिए, आदि तथ्यों से अचेत रहता है । राजसत्ता द्वारा आदेशित कर्मों का पालन उचित है और उसका उल्लंघन करना अनुचित है। अतः राज्यादेश नैतिक निर्णय को कसौटी है। भोजप्रबन्ध में कहा गया है कि लोक राजा का अनुसरण करता है, जैसा राजा होता है, वैसी प्रजा होती है। जिसके (राजा) वचन या विधान से पवित्रात्मा भी अपवित्र हो जाती है और अपवित्र भी पवित्र बन जाता है। इसलिए राजा को देवता माना गया है।" आचारांग के अनुसार राजकीय या वैधानिक नियम नैतिकता का प्रमापक नहीं बन सकता। उन आदेशों की प्रकृति' करना पड़ेगा' की होती है जो नैतिकता का विरोधी है। अतः इन्हें नैतिकता का चरम मानदण्ड नहीं माना जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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